आदि माँ

                आदि माँ
                         
                               
ईश्वर नहीं सर्वत्र रह पाया,माँ को दिया ऊँचा स्थान।
माँ के सृजन से जग ने पाया,जीवन को जीने का ज्ञान।

करुणा दया और ममता की,माँ है सजीव प्रतिमूर्ति।
सर्व देव सब वेद वन्दिता,माँ की फैली जग सुकीर्ति।।

माँ बच्चों की रक्षा करती और मिटाती है अभिशाप ।
माँ की दुआ ही साक्षी है,अभिनव जीवन की सौगात।।

माँ की ममता के सुगंध से,महका है यह जग उद्यान।
माँ के त्याग तपस्या के ऋण,चुकता कैसेकरेजहान।।

सब तीर्थों में बढ़कर है,मातु पिता की निश दिन सेवा।
जीवन सुफल निष्कंटक होता,पाता जग मीठा मेवा।।

माँ करती परिवार सृजन तो,कहलाती जगत ब्राह्मणी।
पूज्य सभी देवों से बढ़कर,दुनिया कहती है कल्याणी।।

पालन करती है बच्चों का,वह  वैष्णवी पुकारी जाती।
रुद्राणी की भूमिका निभाकर,दुर्गति को है दूर भगाती।।

माँ करती है सदा पाल्य से,प्रेम संग निश्छल व्यवहार।
माँ का त्याग है बंदित जग में,मानवता का वह आधार।।

माँ इस धरा की एक धरोहर,त्याग तपस्या सेवा की।
माँ का जीवन एक सरोवर,कल्याणी सम ममता की।।

माँ की गोदी है दुनिया की,एक अनोखा सुन्दर धाम।
माँ के दिल को दुःखी न करना,पूजा करना आठोयाम।।

माँ को कहते आदि माँ क्यों,वह होती क्यों जग जननी।
माँ से ही वह अनुपम ऊर्जा,जिससे जीवन बने महनीय।।

रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा, वाराणसी

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