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चंचल मन

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चंचल मन               (कविता)  हिय के दिव्य प्रकाश से ज्योतित, रहता है सबका यह मन। कभी वायु सम तेज गति से , गतिमान होता है मन। मन बंधन का कारण बनता, मुक्ति प्रदाता भी है, मन। सुख और दुख के भाव जगाता, प्रेम घृणा उपजाता मन। तोड़े फोड़े जोड़े मोड़े, जैसी परिस्थिति में हो मन। विषय विकार कभी मन उपजे, अस्थिर करता है मन। कभी सृजन के भाव जगाता, कभी घुटन अवगुंठित मन। इच्छा चाह कामना बहुविधि, प्रति क्षण सृजित करे यह मन। मन को यदि बश में कर लेवें, सदा प्रफुल्लित होवे तन।। रचनाकार: डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा               सुन्दरपुर  वाराणसी

हाय ! मैं क्या बोलूं

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हाय ! मैं क्या बोलूं  नफरत, फितरत, मजहब, संगीनें मै क्या बोलूं घुटता दम इंकलाब का अब मै क्या बोलूं छदम लोकतंत्र, छदम राष्ट्रवाद, छदम राष्ट्रहित, हाय! कैसी ये मज़बूरी है चलती लेखनी अब सोने के सिक्कों पर मैं क्या बोलूं बंदेमातरम सिर्फ मंचों पर इंकलाब अब घुटनों पर है सम्बाद, धरने, विरोध, प्रदर्शन सब तय करती संगीने अब क्या बोलूं संविधान पर  धूल जमा है न्याय देते अब बुलडोजर हाय!मै अब क्या-क्या  बोलूं युवा साहित्यकार-  वैभव पाण्डेय कादीपुर, सुल्तानपुर