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कहानी - अमावस का चांद

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कहानी - अमावस का चांद अरे तू बहुत मनहूस है, जितने भी लड़के देखने आए, वो सब तुझे मना करके चले गए, तू तो अमावस की वो काली रात है, जब पैदा हुई तो अपने ही मॉं-बाप को खा गई, और पता नहीं किस किस को खा कर दम लेगी ये लड़की, अब और कहॉं जाऊं, कैसे करूंगी तेरी शादी, सोचा था शादी कर दूंगी तो इस घ़र से बला टलेगी, परन्तु वो भी नहीं हो पा रहा, रेशम की चाची (सुशीला) बड़बड़ाते हुए सब्जी बना रही थी,  अरे दीदी अभी रेशम की उम्र ही क्या है, बस १५ की ही तो हुई है, वो मनहूस ख़ुद के लिए है, हमारे लिए तो वो काम की है, घ़र का पूरा काम करती है ना, ख़ाने में भी नख़रे नहीं करती, जो भी दे दो शांति से खा लेती है, और फ़िर अच्छी नौकरानी मिल जाए तो इस बला को यहां से निकाल देना, सुमन ने सुशीला से कहा। रेशम कमरे के बाहर खड़ी हुई सब सुन रही थी, उसे अपने बचपन का एक एक वाक्या जो उसने इतने सालों में देखा उसे सब याद आ गया। दरअसल मिन्नी उर्फ़ रेशम जब २ साल की थी,  तब उसके मॉं-बाबा की एक दुर्घटना में मौत हो गई, और उसके दादा-दादी और चाचा (शेखर) ने ही उसकी देखभाल की, शेखर की शादी हुई, घ़र में चाची का प्रवेश हुआ, शेखर

अर्चना कोहली जी द्वारा लिखी कहानी- आज तो मेरी दावत हो गई

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अर्चना कोहली जी द्वारा लिखी  कहानी- आज तो मेरी दावत हो गई "साढ़े सात बज गए हैं, अभी तक आपकी लाडली बहू का पता नहीं। रोज़ तो छह, साढ़े छह बजे तक आ जाती है।" राधिका ने बड़बड़ाते हुए अपने पति शेखर से कहा। "आज सुबह भावना ने कहा तो था, आज आने में देरी हो जाएगी। तुम तो जरा-जरा सी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती हो।" "पर मैंने भी तो कहा था देर मत करना, जल्दी आ जाना। तभी तो मैं रोहित की शादी घरेलू लड़की से चाहती थी। रोहित की जिद के कारण ही ऐसा करना पड़ा। अब कब बहूरानी आएगी और कब खाना बनेगा!" "तुम्हें तो बस बहूरानी की बुराई करने का कोई अवसर चाहिए। आ जाएगी।" "ऐसा करो, आज तुम ही दाल-चावल बना लो। मैं भी इसमें तुम्हारी मदद कर देता हूँ।" "अब इस उम्र में खाना बनाऊँ! कैसे दिन आ गए हैं। सही ही कहा है, बहू का सुख किस्मतवालों को मिलता है।" "तुमको तो बात का बतंगड़ बनाने की आदत है। काम करने से ठीक ही रहोगी। जुबान की जगह थोड़े हाथ-पैर भी चला लिया करो।" "आपसे तो बात करना ही बेकार है।" "क्या कमी है बहू में। बिना कहे स

सीमा वर्णिका जी द्वारा सच्ची घटना पर आधारित लिखी कहानी - भिखारिन

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सीमा वर्णिका जी द्वारा सच्ची घटना पर आधारित लिखी कहानी - भिखारिन                  भिखारिन रोज आते - जाते रास्ते में मंदिर के पास बैठी उस भिखारिन पर एक निगाह पड़ जाती थी। कभी-कभी उसे कुछ दे दिया करती थी मैं। वह बदले में अपनी रटी रटाई दुआएं देती.... दिसंबर लग गया था हवा में ठंडक बढ़ने लगी थी। स्कूटी से आने जाने में हल्की सर्दी महसूस होती थी।       उस रोज मंदिर के पास आकर मैंने अपनी स्कूटी रोकी। किनारे एक सुरक्षित जगह देखकर खड़ी कर दी। मंगलवार का दिन था मंदिर में भक्तों की बहुत भीड़ थी। लाइन कुछ लंबी हो चली थी मैं भी लाइन में खड़ी हो गई अपना पर्स फोन बगैरा ठीक से संभाला। अक्सर मंदिरों पर सामान चोरी हो जाता है। अभी मेरा नंबर आने में वक्त था। मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की फिर थोड़ी देर में नजर इधर उधर भटकने लगी। ऑंखें उस भिखारिन पर पर टिक गई। लोग खाने-पीने का सामान दे रहे थे तो कुछ लोग पैसे भी बांट रहे थे। मैं चुपचाप उसकी हरकतें देख रही थी। कोई कुछ भी देता वह अपने पास रक्खी गठरी में घुसा देती। ऊपर सामने कुछ भी नहीं रखती और आँखों में ऑंसू और चेहरा दयनीय बना फिर से मांगने का सिलस

आइये पढ़ते हैं सीमा वर्णिका द्वारा लिखी कहानी- उपहार

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आइये पढ़ते हैं सीमा वर्णिका द्वारा लिखी कहानी - उपहार                      उपहार  जन्मदिन पर उपहार में दादा जी से दो हजार  रुपए पाकर रीता के पांव खुशी के मारे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह मन ही मन सोच रही थी कि वह इन पैसों को किस तरह से खर्च करेगी । वैसे भी किशोर मन कल्पना से भरपूर होता है।    कॉलबेल बजी उसने देखा उसकी सहेली मीना आई थी। उसका मन अपने जन्मदिन पर अपनी प्रिय सहेली को देख कर खुश हो गया । कैसी हो मीना," रीता ने चहकते हुए पूछा-  'ठीक हूँ' उसने दबी जबान में उत्तर दिया।  अरे! क्या हुआ? कोई बात है क्या? इतनी उदास क्यों हो? प्रश्नों की झड़ी लगा दी रीता ने। मीना की आँखें भर आयीं वह बात टालने लगी। पर रीता कहाँ मानने वाली थी । उसके बहुत आग्रह पर मीना बोली," तुझे तो पता है कल इंटर के फॉर्म भरने की अंतिम तिथि है। माँ बाबूजी से रोज कह रही हूँ पर वह फीस जमा नहीं कर पा रहे। बाबूजी के नौकरी छूट गई है। वैसे ही घर में पैसे की तंगी थी। रीता मेरा पढ़ने का सपना अधूरा रह जाएगा।" यह कह मीना फफक फफक कर रोने लगी ।    रीता ने मीना को सीने से लगा लिया और बोली,"

बेटी ससुराल में खुश रही : एक पिता

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        (सच्ची कहानी) बेटी ससुराल में खुश रही : एक  पिता  एक पिता बहुत दिनों बाद अपनी बेटी के घर जाता है। बेटी और दामाद दोनों ने बहुत सेवा सत्कार किया। बेटी के चेहरे पर मुस्कान देखकर पिता भांप लेता है कि मेरी बेटी अपने पति के साथ ससुराल में बहुत खुश है। यह मेरे अच्छे संस्कार व शिक्षा का फल है। -गौतम विश्वकर्मा  प्रधान संपादक  (हिन्दुस्तान जनता न्यूज़)

कहाँ से जहाँ तक की यात्रा : डाक्टर सत्य प्रकाश पाण्डेय

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            (भाग - 2)  अभी कल ही की तो बात है. अखबार में खबर निकली. लोगों ने ध्यान से खबर को अपने मानस पटल पर अंकित किया. लिखा था "इंजीनियरिंग की और हुनर दिखाया शिल्प   का". आज के दौर में समाज, इंटरडिसिप्लिन हो गया है. कार्य के स्थल पर भी  एक व्यक्ति से उम्मीद की जाती है, कि वह कई विधाओं में अपना योगदान दे. ऐसी परिस्थितियों में यदि कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में विविधता नहीं लाएगा, उसकी पहचान गौण होकर रह जाएगी. खबर में तनीमा शाह और शर्मिष्ठा पाल ने अपना स्थान सुनिश्चित किया. एक इंजीनियर अगर शिल्पकारी में अपने हुनर से स्थान बनाएं तो यह प्रासंगिक है ही.  यह तो हुई, एक खास व्यक्ति की बात. अब मैं आपको मेरे जैसे अति सामान्य लोगों की बात बताता हूं. पिछले लेख में मैंने सरकारी नौकरी की खींचतान तथा प्राइवेट नौकरी के प्रति लोगों की बदली  हुई दृष्टि को रेखांकित किया था. रोजगार के प्रति दशकों के सामाजिक वार्तालाप प्रभाव युवाओं पर क्या पड़ता है इसका खाका खींचा था. मेरा मानना है कि "इतना आसान नहीं था खुद को पाना" लेख कुछ अखबार के पन्नों में सिमट कर रह जाने वाला भाव नह