सीमा वर्णिका जी द्वारा सच्ची घटना पर आधारित लिखी कहानी - भिखारिन

सीमा वर्णिका जी द्वारा सच्ची घटना पर आधारित लिखी कहानी - भिखारिन 

                भिखारिन

रोज आते - जाते रास्ते में मंदिर के पास बैठी उस भिखारिन पर एक निगाह पड़ जाती थी। कभी-कभी उसे कुछ दे दिया करती थी मैं। वह बदले में अपनी रटी रटाई दुआएं देती.... दिसंबर लग गया था हवा में ठंडक बढ़ने लगी थी। स्कूटी से आने जाने में हल्की सर्दी महसूस होती थी।
      उस रोज मंदिर के पास आकर मैंने अपनी स्कूटी रोकी। किनारे एक सुरक्षित जगह देखकर खड़ी कर दी। मंगलवार का दिन था मंदिर में भक्तों की बहुत भीड़ थी। लाइन कुछ लंबी हो चली थी मैं भी लाइन में खड़ी हो गई अपना पर्स फोन बगैरा ठीक से संभाला। अक्सर मंदिरों पर सामान चोरी हो जाता है। अभी मेरा नंबर आने में वक्त था। मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की फिर थोड़ी देर में नजर इधर उधर भटकने लगी। ऑंखें उस भिखारिन पर पर टिक गई। लोग खाने-पीने का सामान दे रहे थे तो कुछ लोग पैसे भी बांट रहे थे। मैं चुपचाप उसकी हरकतें देख रही थी। कोई कुछ भी देता वह अपने पास रक्खी गठरी में घुसा देती। ऊपर सामने कुछ भी नहीं रखती और आँखों में ऑंसू और चेहरा दयनीय बना फिर से मांगने का सिलसिला शुरू कर देती। बहुत देर तक उसके मनोविज्ञान को पढ़ती रही.. तभी एक वृद्धा जो देखने से काफी संभ्रांत लग रही थी गाड़ी से उतरी उन्होंने उसे एक शाॅल और एक नई धोती दी और उससे कहने लगी, "गंदे फटे कपड़े हटा दो, इसे पहन लो" भिखारिन उन्हें ढेर सारी दुआएं दी और आश्वासन दिया अभी बाद में पहन लेगी। मेरा नंबर आ गया था हमने मंदिर में जा कर पूजा अर्चना की। फिर वहाँ से वापस आ गए। 
    फिर एक रोज मैं उस रास्ते से गुजर रही थी मेरी नजर उस  भिखारिन पर पड़ी। वह गंदे और फटे कपड़ों में सिकुड़ी बैठी थी। स्मृति पटल पर उस रोज का पूरा दृश्य घूम गया। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसके पास अपनी स्कूटी रोकी और उससे राम-राम किया। वह भी मुस्कुरा दी, मुझे पहचानने लगी थी। आते-जाते अक्सर मैं उसे कुछ दे दिया करती थी। मैंने उससे बड़े अपनेपन से पूछा - अम्मा मंगलवार को माताजी तुम्हें शॉल और कपड़े दे गई थी, वह कहाँ है पहने क्यों नहीं? 
वह थोड़ी अनमनी हुई बात को टालने लगी। पर हम भी कहाँ मानने वाले थे? जब हमने बहुत जोर दिया तब उसने जो बोला हम सुन कर रह गये। वो कहने लगी अरे बिटिया! हम का अच्छा कपड़ा पहिन के अच्छे से बइठवें तो लोग बाग हमका कछु दैवे का...अरे! ठेंगा देंगे .. बिटिया हमरा तो जीने का यही सहारा है.. काम बिगड़ावे का है का.. कोऊ ना पसीजी.. रुपैया अठन्नी भी ना निकली किसी की जेब से।" उसके होठों पर कुटिल मुस्कान फैल गई। हमने उसे कुछ पैसे दिए और वहां से आगे बढ़ गए, मेरे मस्तिष्क में रील चल रही थी। मन उसकी बातों का विश्लेषण करने में लगा था। निष्कर्ष यही निकल रहा था, भीख मांगना भी एक व्यवसाय है और उसको बनाए रखने के लिए फटे हाल दिखना भी जरूरी।

- सीमा वर्णिका

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