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प्रकृति की सुषमा

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प्रकृति की सुषमा प्रकृति भू का आत्म तत्व है, आओ इसका करे जतन। सबको सुलभ उसके संसाधन, विविध वस्तुएं,अन्य रतन।। प्रकृति की है छटा निराली, इसकी गोंद सौंदर्य की खान। इसीलिए तो कवि जन सारे, करते रहे सदा गुणगान।। पर्वत से निर्झर हैं झरते, नदियों का कल कल बहना। तितली भ्रमर सुमन पर उड़ते, इन दृश्यों का क्या कहना।। तरुओं पर पंक्षी के कलरव, जीव जंतु के अरण्य प्रवास। वर्ष पर्यन्त सुमनों की संगत, पाते हैं सुगंध व सुवास।। मलयागिरी की पवन सुखद तो, प्रमुदित करता तन और मन। प्रकृति के विशाल आंगन में, हरियाली संग मुक्त गगन।। तृण पर फबती ओस की बूंदें, मुक्ता सी लगती मन भावन। खिलते कमल कुमुदनी संग, पावस में मन हरता सावन।। सूर्योदय की किरणें फैलें, रश्मि पुंज बन तेज प्रखर। सभी जगह है सुषमा उसकी, प्रतिपल नीश दिन, अजर अमर।। प्रकृति है आनंद प्रदायिनी, मन को भाए बारंबार। सबकी करती आशा पूरी, विविध तत्व का है अंबार।। प्रकृति हमें तो सिखलती है, सहनशील बन करें करम। जीवन हो चलायमान हर दम, पाय प्रतिष्ठा रहे नरम।। प्रकृति की है छटा निराली, दिखती रंग बिरंगी। विविध रंग की सुषमा उसकी आकर्षक बहुरंगी।। प्रकृति

सत्यता का रंग : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

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  सत्यता का रंग : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"  कभी- कभी एक चुप्पी भी, गुनाह नाम लिख देती है। खुलती हैं परत, जब सच्चाई की, तो कई नजरों को शर्मशार कर देती है। ढूंढता है, शब्दों को पश्चाताप के लिए, शख्स  मगर वक्त की कलम नई कहानी लिख देती है। जीता है पश्चाताप में, हर जीता हुआ, जब सच्चाई उसे, स्वयं की नजरों में शर्मसार कर देती है। स्वयं को ईश्वर तुल्य प्रकट करने वाले को, पश्चाताप की अग्नि राख कर देती है। अंहकार में मैं ही नहीं मैं भी मरता है, कहो सत्य कहां, सौ पर्दो में छुपाता है। मिल जाए , भले ही किसी भी रंग में, "सत्य"  तब भी सत्य का रंग अनोखा होता है।

आओ हम नजरें घुमाएं गाँव गलियों में

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आओ हम नजरें घुमाएं गाँव गलियों में आओ हम नजरें घुमाएं गाँव गलियों में, जहाँ बीता बचपन छूटा वो ठिकाना है! पढ लिख कर के निकल गए गाँव से जो, बस गए शहरों में गाँवों में विराना है! आस लिए माता पिता सपने सजाते रहे , परदेश गए सभी बेटों को दिखाना है! बरसों बरस बीतें गए गाँव नहीं लौटे, कमाई के चक्कर में उलझा जमाना है!(१) गुमसुम गलियों को ताँकती बोझिल आँखें, घरों में है वृद्धजन याद ये दिलाना है! रोजगारी की है कमी पलायन मजबूरी, परिवार टूटने के संकट मिटाना है! जिंदगानी का आनंद परिवार के ही संग, पालकों की शरण में जीवन बिताना है! सार्थक प्रयास करें गाँवों में ही काम मिले, माता पिता कुटुंब का फर्ज भी निभाना है!(२) रचनाकार- अरविंद सोनी "सार्थक" रायगढ़, छत्तीसगढ़ 

ब्रह्म द्रव्य है, यह पानी

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ब्रह्म द्रव्य है, यह पानी   जल तो केवल बूंद नहीं है, ब्रह्म द्रव्य है यह पानी। इसकी बर्बादी को रोकें, कहते सभी, संत स्वामी।। माँ की भांति यह पोषक है, ऊर्जा का भंडार सही। यह तो कल्याणक सबका, जीवन का आधार यही।। जल पवित्र करता है सबको, यह औषधि रसायन है। सेवन से मिलती है ऊर्जा, जीवन का तो विधायन है।। देव स्वरूप हम इसे मानकर, करते है इसकी पूजा। जल बिन जीवन दुर्लभ है, जल सा द्रव्य नहीं दूजा।। अनुपम जल है, एक धरोहर मान गए न्यायालय भी। इसके अतिदोहन को रोकें, बच्चे, बूढ़े और   सभी।। जल के भंडारण को सोचो, आओ करें, विचार सभी। जल के प्रति व्यवहार को बदलें, रोकें अत्याचार सभी।। पानी है तो जीवन सबका, पानी से ही सबका पानी । पानी का बस मोल जान लो, नहीं तो याद आए नानी।। रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा                 सुंदरपुर, वाराणसी

भौतिक समृद्धता, स्थायी सुख का कारण नहीं : डॉ दयाराम विश्वकर्मा

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भौतिक समृद्धता, स्थायी सुख का कारण नहीं : डॉ दयाराम विश्वकर्मा         (एक आध्यात्मिक चिंतन)            वर्तमान संदर्भ में सुख की अवधारणा अलग अलग व्यक्तियों के लिए अलग अलग होती है, लेकिन आमतौर पर सुख एक भावी और मानसिक स्थिति माना जाता है, जिसमें व्यक्ति को तृप्ति, संतोष और आनंद का अनुभव होता है। सुख की धारणा सभी लोगों के लिए सामान्य रूप से अच्छा स्वास्थ्य, सुखद सामाजिक संबंध, आर्थिक सुरक्षा, परिवार कार्य सुरक्षा, आत्म सम्मान, स्वतंत्रता और  मानसिक सुख आदि के माध्यम से प्राप्त होता है।  आचार्य तुलसी ने राम चरित मानस में लिखा है,  काहू न कोऊ सुख कर दाता।  निज कृत कर्म, भोग सब भ्राता।।      हम जिस नियत को धारण कर कर्म करते है, वैसा ही फल हमें प्राप्त होता है। श्रीमद भागवत पुराण में श्री कृष्ण ने अपने नंद बाबा से कहते है कि,   कर्मणा जायते जंतुः, कर्मणैव प्रलियते।  सुखम, दु:खम, भयम्, क्षेमम्, कर्मणैव भिपद्यते ।।  यानि कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख भय और मंगल की प्राप्ति होती है। वैसे देखें तो जन्म  मरण, सुख, संपत्ति, विपत्ति, कर्म, काल, पृथ्वी, भवन, धन, पुर, परिवार, स्वर्ग, नरक

गजल - बेवजह दर्द बढ़ाने की जरूरत क्या थी

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गजल - बेवजह दर्द बढ़ाने की जरूरत क्या थी  इतना बेदर्द बन गया कैसे, बेवजह दर्द बढ़ाने की जरूरत क्या थी। दिल ये टूटा हुआ है अर्से से, ज़ख्म दिल के दुखाने की जरूरत क्या थी। बेवजह रूठ कर जाने वाले, मुझको अपना बनाने की जरूरत क्या थी। तूने हर बार दिया जख्म मुझे, फिर ये एहसास जताने की जरूरत क्या थी। हर सवालात तेरे जख्मी थे, ऐसे हालात में सवालों की जरूरत क्या थी। इतना खुदगर्ज हो गया कैसे, सिलसिले वार पे वार की जरूरत क्या थी। फैसला करते हुए सोचा होता, फासले हो तो फैसलों की जरूरत क्या थी। अक्सर यादों में होस आता है, इस कदर साथ निभाने की जरूरत क्या थी। इतना बेदर्द बन गया कैसे, बेवजह दर्द बढ़ाने की जरूरत क्या थी। साहित्यकार व लेखक-  आशीष मिश्र उर्वर कादीपुर, सुल्तानपुर