प्रकृति की सुषमा

प्रकृति की सुषमा
प्रकृति भू का आत्म तत्व है,
आओ इसका करे जतन।
सबको सुलभ उसके संसाधन,
विविध वस्तुएं,अन्य रतन।।

प्रकृति की है छटा निराली,
इसकी गोंद सौंदर्य की खान।
इसीलिए तो कवि जन सारे,
करते रहे सदा गुणगान।।

पर्वत से निर्झर हैं झरते,
नदियों का कल कल बहना।
तितली भ्रमर सुमन पर उड़ते,
इन दृश्यों का क्या कहना।।

तरुओं पर पंक्षी के कलरव,
जीव जंतु के अरण्य प्रवास।
वर्ष पर्यन्त सुमनों की संगत,
पाते हैं सुगंध व सुवास।।

मलयागिरी की पवन सुखद तो,
प्रमुदित करता तन और मन।
प्रकृति के विशाल आंगन में,
हरियाली संग मुक्त गगन।।

तृण पर फबती ओस की बूंदें,
मुक्ता सी लगती मन भावन।
खिलते कमल कुमुदनी संग,
पावस में मन हरता सावन।।

सूर्योदय की किरणें फैलें,
रश्मि पुंज बन तेज प्रखर।
सभी जगह है सुषमा उसकी,
प्रतिपल नीश दिन, अजर अमर।।

प्रकृति है आनंद प्रदायिनी,
मन को भाए बारंबार।
सबकी करती आशा पूरी,
विविध तत्व का है अंबार।।

प्रकृति हमें तो सिखलती है,
सहनशील बन करें करम।
जीवन हो चलायमान हर दम,
पाय प्रतिष्ठा रहे नरम।।

प्रकृति की है छटा निराली,
दिखती रंग बिरंगी।
विविध रंग की सुषमा उसकी
आकर्षक बहुरंगी।।

प्रकृति से अस्तित्व की रक्षा,
सभी तत्व हम पाते।
आठो याम यह लगे सुहावन,
जीव जंतु हर्षाते।।

रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
                सुंदरपुर, वाराणसी

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