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श्री कृष्ण प्राप्ति विरह गोपी गीत श्रीमद्भागवत -१० स्क० ३१ अ० समीक्षक- आचार्य डा० गौरीशंकर उपाध्याय

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श्री कृष्ण प्राप्ति विरह गोपी गीत श्रीमद्भागवत -१० स्क० ३१ अ० समीक्षक आचार्य डा० गौरीशंकर उपाध्याय गिरिडीह (झारखंड)   प्रेरक प्रसंग - हे प्राणनाथ मेरे प्रियतम ! हम तुम्हें बुलातेहै? किआप मधुर बंशी बजा नेत्रों से हमें रिझाते हैं।। जन्म लेने सेआपके ब्रज की महिमा बढ़ रही। छोड़ वैकुण्ठ लक्ष्मी ऋधि सिधि सहित ब्रज में रह रही।। दर्शन आपके करने प्राण रख खोज विविध दिशाओं मैंने किया। अमूल्य दासियां हूं , आपके कृपा : कटाक्ष नेत्रों ने, मेरे चित चुरा लिया।।हे चितचोर! विना देखे आपके मेरे प्राण पखेरू न कहीं उड़ जाये। डर है मेरा, कहीं आपको, स्त्री हत्या का पाप न लग जाये।। याद रहे प्रभु जो नेत्रों से बध होता है, वह शस्त्रों से नहीं। जीवन ब्यर्थ जीया, फिर नेत्रों का प्रयोजन क्या? जो प्रभु का दर्शन किया नहीं।। फिर आपने बचाया क्यों? प्रभु हमें विषाक्त यमुना जल से। अजगर रुप अघासुर से, और बृषभासुर, ब्योमासुर से।। वर्षा, वायु से प्रचण्ड अग्नि और वज्रपात से, न जाने कितने बड़े -बडे उत्पातों भरीं। सभी प्रकार के असुरों के भयों से, बार-बार मेरी रक्षा क्यों करी?हे सखे! आप यशोदा, नन्दनन्दन ही नहीं, अपि

धनतेरस

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  धनतेरस  धन की  देवी लक्ष्मी माता, सब पर कृपा करें अपार  ,  पूर्ण कामना हो  सबकी ,  स्वतः  विराजें सबके द्वार । धन धान्य से भरा  सदन हो,  सुख प्राप्त करे संसार  ,  कोई इच्छा ना रहे अधूरी,बरसे हर पल असीम प्यार । कार्तिक माह कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को होती  धनतेरस ,  भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन से निकले थे ले कलश ।  अमृत  कलश  ले   स्वास्थ्य   के  सब  गुण  बता गए ,  स्वास्थ्य  ही     सबसे   बड़ा    धन   यह  जता  गए  ।  अति  पुनीत दिन आज का पूजित होते धन्वंतरि  देव ,  स्वास्थ्य  सभी  मांगते   उनसे  करते  कामना स्वमेव ।  भक्ति  भाव  से  सब  पूजन  करते,  मूर्तियाँ  खरीदते ,  घर के मुख्य द्वार पर बड़ी भक्ति भाव से दीप जलाते । धन  की  खरीदी आज  करने से कई गुना बढ़ जाता  ,  धन त्रयोदशी  दिन अति पुनीत भाग्य उदय गढ़ पाता ।  धन    संपदा   मिले ,   जीवन  सबका सुखी हो  जाए ,  भगवान धन्वंतरि प्रसन्न हों,स्वास्थ्य भी उत्तम हो जाए।  रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय   मुंबई ( महाराष्ट्र )

लेख- खोती भावनाएं : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

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  लेख- खोती भावनाएं :   डॉ कंचन जैन "स्वर्णा" दोनों खटखटाते रहे दरवाजा, दरवाजा खोलने का वक्त, ना तुम पर था, ना हम पर था। एक अहम में और दूसरा इन्तजार में था। बीत गए बरसों, इसी कश्मकश में, एक अहम में आगे था और दूसरा इन्तजार में पीछे था। पड़ाव बदला शहर के मोड़ों का, दरवाजा आज भी खटखटाते हैं, दोनों। मगर  …..................................। बीत गए बरसों, खामोशी से दरवाजा खटखटाने में। ना दरवाजा खुला, ना कोई मिला। हो गया अंत रिश्ते प्यारों का। एक ही दरवाजे पर खड़े होकर, दोनों खटखटा रहे थे, दरवाजा। मगर............................... फर्क सिर्फ इतना था, एक दरवाजे के अंदर और दूसरा बाहर था।

प्यारा चंदा तू मेरा, शीतल चांदनी मैं तेरी

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प्यारा चंदा तू मेरा, शीतल चांदनी मैं तेरी ओढ़ ली चुनरिया तेरे नाम की, सिंदूर को देख साजन, चांद तारों से मैंने भर ली, तू मेरा मधुर साज, संगीत मैं तेरी चंदा तू मेरा प्यारा, शीतल सी चांदनी मैं तेरी... पिया चांद के साथ चलनी से करूंगी तेरा दीदार, चूड़ी छनकेगी, समझ लेना मेरा असीमित प्यार... सुहागन मरूं और कोई दुआ दूजा न करूं, अंतिम श्रृंगार तेरे हाथों से करूं... अपने हाथों पानी पिला देना, स्नेह से फिर आशीष दे, बांहों में भर लेना.. तेरे दिल में हर पल बसी रहूं, प्यारा सा घर मंदिर सा सजाती रहूं.. ममता बच्चों पर लुटाती रहूं.. जिस ओर तेरे कदम पड़े, कामयाबी हमेशा मिले, स्वस्थ, प्रसन्नता से चेहरा तुम्हारा खिलता रहे... - उमा पुपुन की लेखनी से रांची, झारखंड

करवा चौथ

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करवा चौथ   वर्षों का इंतज़ार खत्म हुआ , आया समय प्यार सवाँरने का ।  करवा चौथ सुहाग के प्यारे पर्व पर,  आ गया दिन गगन निहारने का।  पूर्ण दिन व्रत निर्जला रहकर ,  प्रियतम की रख खुशी कामना।  माँ पार्वती का कर स्मरण,  करतीं पति खुशीहाली की याचना।  बड़ा विशिष्ट  पर्व होता यह,  प्रत्येक सुहागन नारी का।  वे  प्रतीक्षारत  रहती  हैं,  इस त्योहार की  बारी का।  पूर्ण  दिवस भूखी प्यासी  रह ,  देर  रात्रि चंद्र  को अर्घ्य देतीं।  पति के  सुखी समृद्ध होने की,  माँ पार्वती जी से कामना करतीं।  प्रथा यह  कोई  नूतन नहीं ,  वरन यह तो बड़ी पुरानी है।  हमारे शास्त्रों में व्यस्थित वर्णन मिलता,  अत्यंत प्रभावी इसकी व्रत कहानी है।  पूर्ण सरसता जीवन में घुले ,  स्नेह  की  अविरल धार रहे।  उनमें कटुता का नामोनिशान ना हो ,  दोनों के जीवन में महकता प्यार रहे।  रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय मुंबई / महाराष्ट्र 

नारी का जीवन : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

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  नारी का जीवन :  डॉ कंचन जैन "स्वर्णा" बरसों से खामोशी में जीती- मरती नारी , कभी भू्ण हत्या, कभी दहेज प्रथा, कभी बाल विवाह का शिकार होती नारी। रीति रिवाजों के पर्दों में छुपकर, अंधेरों में  सिसकती नारी। रसोई की कलम पकड़ कर, दुनिया में इतिहास रचती नारी। कभी दुर्गा कभी सरस्वती कभी लक्ष्मी का रूप धारण करती नारी, देवी स्वरूप देवालय तक सीमित,  घर- घर में बरसों से शिवालय में बैठी रोती नारी। कभी समाज की  कुप्रथाओं , कभी समाज के तानों का शिकार होती नारी। अपमान सहती, मानसिक तनाव सहती, नारी। बदल रहा है, जमाना। सशक्त भारत में जहाज उड़ाती नारी। बदलते परिवेश में, शिक्षा और अधिकार के लिए लडती नारी। सदियों पुरानी बेड़ियों से, शिक्षा का दामन थाम आगे बढ़ती नारी । बरसों पुरानी परंपराएं बदली, रूप बदला, अधिकार बदले, ढूंढती है, अपना अस्तित्व नारी।

जय माँ सिद्धिदात्री ( माँ का अंतिम स्वरूप)

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जय माँ सिद्धिदात्री ( माँ का अंतिम स्वरूप) माँ    सिद्धिदात्री   की , आज   करें  आराधना,  माँ पूर्ण  करती लौकिक, पारलौकिक कामना।  कमल  पर   आसीन   माँ,  चार  भुजा    वाली,  अंतिम  स्वरूप अम्बे, आठों सिद्धि  देने वाली।  जो  करे   माँ   की  जप,  तप,   पूजा , अर्चना ,  बने  कृपापात्र   माँ  का , न  शेष   रहे  कामना।  माता    आज   आपसे  , केवल   एक  प्रार्थना,  प्राण  रक्षा  करें   सबकी  , यही  मेरी  याचना । सुरक्षित  रहें  सभी  , पाकर   मां   तेरा  वरदान ,  तन, मन , धन माँ सब अर्पित, करो कष्ट संधान।  माँ    रिद्धि, सिद्धि  सबके  हृदय  में भर दें ज्ञान,  बुद्धि दें वंश में सभी के ,और चित्त में भरें ध्यान।  माँ सबके दुःख दूर कर, प्रदान करें अभय वरदान,  सज्जनों का  हित कर, दें जगत में मान, सम्मान।  माँ  निरोगी तन कीजिए ,सुंदर सदा मन कीजिए,  कष्ट  का  कर  संहार , सुखमय जीवन  दीजिए।       रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय मुंबई, महाराष्ट्र 

आइए पढ़ते हैं चंद्रकान्त पाण्डेय जी द्वारा लिखी रचना- प्रेम

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आइए पढ़ते हैं चंद्रकान्त पाण्डेय जी द्वारा लिखी रचना- प्रेम  ढाई   अक्षर   का   शब्द    प्रेम ,  जीवन जीने  की कला सिखाता।  प्रेम   ही  तो  आधार  सृष्टि  का ,  विश्व   प्रेम   की  महिमा  गाता  । प्रेम   एक  अहसास  है  केवल  ,  अनुभव  बेहतर   करता  इंसान ।  प्रेम   आस्था  , प्रेम   भक्ति    है ,  प्रेम   है   जग   में   बड़ा  महान। प्रेम   समर्पण ,  प्रेम   ही  शक्ति ,  प्रेम     है   ऊर्जा   जीवन    का ।  प्रेम   स्रोत  है  पवित्र  दिलों  का ,  प्रेम  भक्ति  है  शांति  मिलन का। पिता  -  पुत्र   का    प्रेम   अमर ,  गाथा    जानी     पहचानी    है  ।  निष्प्राण  हुई   काया  चिंता   में ,  जग    विदित आदर्श  कहानी है। प्रेम    सत्य    से   हरिश्चंद्र   का  ,  स्वप्न   की  बात  भी   मान  गए ।  शानों   शौकत   छोड़  सिंहासन ,  श्मशान      पर     दास     बनें  । पुत्र    प्रेम   में   जननी   अपना  ,  दुर्लभ      जीवन    खर्च    करे  ।  देश    प्रेम    में    वीर   सिपाही  ,  जीवन  सरहद  पर  उत्सर्ग  करे ।  प्रेम   प्रभु  का   जीव   मात्र   से  ,  नित   नूतन  जीव  निर्माण  करें  । 

बेटियाँ

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बेटियाँ  बंजर  सी  ज़िंदगी में उपवन हैं बेटियाँ ,  बेटों से तनिक भी नहीं कम हैं बेटियाँ । बहाने बनाते जब सभी हाज़िर हैं बेटियाँ,  परिवार का दुःख बाँटने में माहिर हैं बेटियाँ।  अपना ही परिवार बेटे हैं सवाँरते ।  दो घरों को अकेले सजातीहैं बेटियां।  सुख में खुशियाँ मनाती हैं बेटियां,  दुःख की घड़ी में संबल बन जाती हैं बेटियाँ।  पुष्पों सी हर आँगन में महकती हैं बेटियाँ,  ना जानें कुछ के दिल में क्यों खटकती हैं बेटियाँ। यूँ तो निर्मल मन की होती हैं बेटियाँ,  जरूरत पड़े तो खुद को बदलती हैं बेटियाँ। आज तो हर क्षेत्र में कामयाब बेटियाँ,  आसीन ऊंचे पदों पर नायाब बेटियाँ।  हर रिश्ते को बड़े स्नेह से सवांरती है बेटियाँ, खुद सेतु बनकर दो कुटुंब सँभालतीहैं बेटियाँ।  रचनाकार- चंद्रकांत पाण्डेय मुम्बई/महाराष्ट्र 

बंधन

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  बंधन  हर   प्राणी   का  नाता  जग  से ,  ईश्वर    को   शत - शत   नमन  ।  संसार     जाल    संबंधों     का  ,  बड़ा    अटूट    इसका    बंधन  ।  माता    पिता    का    बच्चों  से  ,  रक्त       का      सुदृढ़     नाता  ।  मर  मिटते  सदा  एक  दूजे  पर  ,  यह   देख  जग  भी  सुख पाता  ।  बंधन  भक्त    का   भगवान  से  ,  अटूट  जुड़े   आत्मा  परमात्मा  ।  राधा  रानी  का  कृष्णा  जी  से   ,   प्रभु  जी  का  हर जीवात्मा  से  ।  मधुर    बंधन    पति   पत्नी  का  ,  एक    दूजे   पर    जान   लुटाएँ  ।  सुख  दुःख  दोनों  में  साथ  खड़े  ,  बंधन    में    रह    उम्र    बिताएँ  ।  भाई   बहन   का    प्यारा  बंधन  ,  नंगे     पाँव      दौड़े     बनवारी  ।  आकर  बहन  की  लाज   बचाए  ,  कथा   जानती     दुनियाँ   सारी  ।  - चंद्रकांत  पांडेय  मुंबई  ( महाराष्ट्र  )

कान्हा एक बार फिर चले आना...

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कान्हा एक बार फिर चले आना... कहां अब कोई शबरी के झूठे बेर में, वो अनोखा प्रेम देखता है  कहां सुदामा के लाए अन्न के दाने को, देख कोई अश्रु बहाता है प्रेम अश्रु सबके आंखों में सजा जाना कान्हा एक बार फिर चले आना... कहां रख दी तूने वो बांसुरी, जिसकी धुन से राधा,गोपी दौड़ी चली आती थी वातावरण खिल खिल सी जाती थी, सबके हृदय में परस्पर प्रेम अनुराग बिखरे, बांसुरी की सुरीली धुन छेड़ने फिर चले आना कान्हा एक बार फिर चले आना... राधा सा प्रेम,मीरा थी तेरी प्रेम दीवानी अधर पर कृष्ण,इकतारा पर रटती तेरी कहानी इस काल में लुप्त होता प्रेम महिमा प्रेम की समझाने आ जाना कान्हा एक बार फिर चले आना... मम्मी से अब मैया कह जाए, माखन के लिए जिद कर जाए, वही लल्ला वाला प्यार लिए चले आना कान्हा एक बार फिर चले आना.. धन अब प्रधान हो कालिया बन गया है, रिश्तों पर कुंडली मार बैठ गया है, कर देना कालिया का  अब नाश, रिश्तों पर मोहिनी मंत्र बिखरा जाना, कान्हा एक बार फिर चले आना... - उमा पुपुन रांची, झारखंड

सरस्वती वंदना

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सरस्वती वंदना  दीप मेरी आस का तू ही जला मां शारदे। दूर कर मेरा अविचल अंधेरा मां शारदे।। पथ पे मेरे कर दे ज्ञान का सवेरा। मेरी मंजिलों का दे सहारा माँ शारदे।। सात सुरों सी बहूँ मैं एक निर्मल धारा। गीत मेरे हों सरल सरिता माँ शारदे ।। आज हाथ अपना सर पे मेरे रखदो माँ। साथ मेरा देंना सदा सदा मां शारदे।। - सुखमिला अग्रवाल 'भूमिजा' जयपुर, राजस्थान

हमारा संविधान

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हमारा संविधान 20 वीं सदी की बात है, कैसे बना अपना संविधान  आओ तुम्हे बताऊं प्यारे भारतवासी आज, ब्रिटिशों के नियम तहत जब दब गया था भारत का संसार, तब जाकर तय हुआ अब बनेगा अपना संविधान, 1934 में की गई थी संविधान बनाने की मांग, पर तब ना मानी गई हमारी बात , 1946 में पहली संविधान सभा का हुआ आयोजन  ना कोई धर्म, जाति, ना ही भाषा, सबसे अलग रहा हमारा संविधान  प्रत्येक नागरिक को मिले अपना अधिकार कही गई इसमें ये बात, ना कोई राजा, ना कोई रंक, इसके लिए सब एक समान, हमारा देश बने लोकतांत्रिक इस पर किया गया विचार, धीरे धीरे होने लगा संविधान का विस्तार, देखते देखते बीत गए 2 साल, ॥ महिने, 18 दिन सदस्यों ने पूरा किया कल्पनाशील दस्तावेज की मांग, इसमें राष्ट्र की विविधता में एकता को मिला सम्मान, भारत के प्रत्येक नागरिक का पहला ग्रंथ बना संविधान, एक प्रस्तावना, 22 भाग, 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूची के साथ दुनिया का सबसे लंबा बना हमारा संविधान , 26 नवंबर 1949  को अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को पूर्णतः लागू हुआ सबका अधिकाररूपी ये संविधान, कैसे कैसे बनाया गया सबके आत्मसम्मान का हथियार , समझो और समझाओ ये

कल्पनाओं की उड़ान

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कल्पनाओं की उड़ान ख़ुद पे संयम रखने वाले नर्म दिल एक सरल स्वभाव के इंसान आप हो तो शायद?, यह काम कर सकते हो,  अपने उम्मीदों की छलांग भर सकते हो।  अंतर की शीशीयों की महक आम बात है असली ख़ुशबू का मजा  तब है जब आपका किरदार महके शायद?, यह काम  कर सकते हो,  हौसला रखो तुम भी अपने ज़िंदगी में ज़ाम भर सकते हो।  लोग भले ही क्यों न आपके खिलाफ़ खड़े हों अगर आप में जज़्बा  अभी भी बरक़रार है  तो शायद?, यह काम कर सकते हो,  यह बात सच है अपनी  कल्पनाओं की  उड़ान भर सकते हो।  - शेख रहमत अली "बस्तवी" बस्ती (उ, प्र,) 

नया सवेरा नई शुरुआत

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नया सवेरा नई शुरुआत ----------------------------- रात अंधेरी बीत गई, नया सवेरा आया है। जीवन पथ पर आगे बढ़ने, ख्वाब नये ले आया है। नई नई उम्मीदें जागेंगी, स्वप्न नये हम देखेंगे। प्रतिकूलताओ को हमको भूलकर, संकल्प नये दोहराएंगे। गुजर गए जो लमहे, खट्टे मीठे प्रसंगों के। भूल उन्हें उत्कर्ष करेंगे, अनुकूलता का वरण करेंगे। आवाहन नए वर्ष का होगा, समापन रूढ़िवादिता का होगा। नव विश्वास दिलों में होगा, निरंतर हमें आगे बढ़ना होगा। जीवन के अगले पायदान पर, कदम दृढ़ता से रखना होगा। उत्साह, उम्मीद को साथ लेकर, नव वर्ष का वंदन करना होगा। - प्रभा दुबे रीवा, मध्य प्रदेश -----------------------------

नया वर्ष अभिनंदन

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नया वर्ष अभिनंदन  कोयल कूक कमल खिल कहते नया वर्ष अभिनंदन । बाला निडर बालपन विचरे अभय न कहीं विखण्डन।। आगत के स्वागत में सरसों पीली चूनर ओढ़ खड़ी, गेंदे फूल लहकते क्यारी हँसती गुल्दावदी लड़ी। शीश झुका कर रहा दहेलिया उम्मीदों के संग वंदन।।कोयल..... स्वागत में नदियों की धारा चलती है इतरा करके, मोर नाचते वन उपवन में पंखों को बिखरा करके। कलियों पर मंडरा कर भंवरा करता है मृदु लय गुंजन।।कोयल..... करता दीन तुम्हारा स्वागत नई नई अभिलाष लिये, संत मना जग हित में करता स्वागत पूजन जला दिये। सूनी गोद भरो  हे आगत झोली दीन कवी उर चिंतन।।कोयल...... घृणा द्वेष अज्ञान शीश पग धर कुचलो फैले वादों को, ऐसी समरसता भर दो मन भूलें सभी विवादों को। यही याचना नये वर्ष से हो भू भय पर मंथन।।कोयल........... सदा सनातन धर्म संस्कृति का होता उत्थान रहे, विश्व पटल पर भारत यश का तनता विमल वितान रहे। रोग मुक्त सारी वसुधा हो दमके काया कंचन।। कोयल...…... रचनाकार- डाॅ0 रामसमुझ मिश्र अकेला  लालगंज, प्रतापगढ़

सर्दी का आगमन

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सर्दी का आगमन  सर्दी  का   हो  चुका  आगमन,  मौसम  अब   बदला -  बदला।  खुशनुमा   सी   धूप   हो  चली,  बंद   हुआ   गर्मी   का  हमला।  शरद  ऋतु   में  बड़े  ही  प्यारे,  त्योहार    आ   गए  मनभावन।  तिल, गुण    का   सेवन  करें,  कुंभ   मेला   में   करे  नहावन।  गर्म    कपड़ों   से   लदा  शरीर,  स्वेटर, कंबल, ऊनी  मफलर।  सुबह,   शाम  अलाव   तापते,  ठंड    हो     जाती    छू   मंतर।  शीत  अब   हवा  में    घुल  गई,  धूप      लगे       अति     प्यारी।  तरह - तरह की ताजी सब्जियां,  इस     ऋतु    की      बलिहारी।  बच्चों     और    जवानों     पर,  सर्दी      करे     थोड़ी     रहम।  बूढ़े     और      बीमार    सभी,  परेशान     रहते     हर     दम।  सुंदर  यह  मौसम   सभी   हेतु,  हर    व्यस्था  जिसकी  अच्छी।  लक्ष्मी  जी    की  कृपा   विशेष,  बात  यह  सौ   प्रतिशत  सच्ची।  रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय, मुंबई / महाराष्ट्र

कथनी और करनी

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कथनी और करनी  कथनी   मात्र   एक   प्रस्ताव  ,  करनी   कार्य  का  मूर्त  रूप  ।  जग  महत्व करनी  को  देता  ,  कथनी केवल  शीत की  धूप  ।  मान सम्मान उसका बढ़ जाता,  जिसकी  कथनी  करनी  एक ।  सदा    प्रशंसा   उनकी   होती ,  कर्म ही  जिनका मात्र विवेक  ।  जिनकी  केवल  सुंदर  कथनी  ,  कभी   ना   बन   पाए  नायक  ।  ऐसे  लोग  ना  कभी  आदरित  ,  नाम   रहा  केवल  खलनायक  ।  करनी   जिनकी   अति   सुंदर  ,  लिखा  जाता उनका  इतिहास  ।  लोकप्रियता सदा उनकी बढती  ,  स्तुत्य  बन जाता  सदा  प्रयास  ।  करनी   जिनका   बना   उद्देश्य  ,  कथनी    नहीं    कभी   जरूरी  ।  करनी   पर   ही   रखो   भरोसा  ,  कथनी    तो    केवल   मज़बूरी  ।  करनी  पर   ही    रखो  विश्वास  ,  करनी   सफलता   का  है  मूल  ।  करनी पर ही  टिकी  कामयाबी  ,  कथनी     जैसे     चुभती   शूल  ।  - चंद्रकांत पांडेय,  मुंबई, महाराष्ट्र

देव दीपावली

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देव दीपावली देव दीपावली हर वर्ष  कार्तिक पूर्णिमा को मनाई जाती। स्वर्ग में इसे  देव मनाते, धरा पर काशी मे होती। शिव ने आज के ही दिन, वध किया था त्रिपुरासुर का, जिसने आतंक फैलाया था, उसने ब्रह्मा से वर पाया था। शिव ने त्रिपुरासुर का वध करके, देवताओं को सुख पहुंचाया, सभी देव खुशियां मनाने को अनगिनत है दीप जलाया । स्वर्ग से देव धरती पर उतरे, काशी में इस धरा पर आए, गंगा तीर में दीप जलाकर, दीपदान की परंपरा चलाएं। आज के दिन पवित्र नदी में, स्नान करके दीपदान किया जाता, समृद्धि हेतु लक्ष्मी का पूजन, करके दान पुण्य किया जाता। आज के ही दिन विष्णु ने मत्स्य रूप धारण किया धरती की रक्षा करने हेतु बाद में भिन्न अवतार लिया। - प्रभा दुबे, रीवा, मध्य प्रदेश   --------------------------------

शिशु शिक्षा (शैल सुता छंद)

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शिशु शिक्षा (शैल सुता छंद)   नलिन सिता समता  रख के गुरु, मानक रूप रहें मन में।    प्रमुदित भाव रहें शिशु  प्रेरित,  बुद्धि  जगे अपनेपन   में।    बचपन भूख  जगे प्रिय  ज्ञानद,  शिल्प रचे उँगली    शुभदा।   परिधि  प्रभा  बनते सह  धीरज, देकर विज्ञ रहें सुुखदा।    शिशु समुदाय रहें  स्तर भास्कर, विश्व सु-पूजित हो गरिमा।     रुचिर पुरा भुवि ग्राम सु-कौशल, सीख बनें जन धी महिमा।     जनपद सर्व रहें  शिशु उन्नत, त्याग  समत्व  क्षमा  सविता।     प्रतिनिधि हिन्द रखें जग शोधित, पुण्य प्रतीक रहें अजिता।       { सिता= कमल सविता =सूर्य, विज्ञ= विद्वान  भुवि= स्वर्ग}  - मीरा भारती   पटना, बिहार।