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रिश्ता अपना भी पराया भी

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 रिश्ता अपना भी पराया भी देख रहा हूं हर रिश्ता, हर अपना पराया भी। बिक रहा है हर रिश्ता, देख रहा हूं हरेक की कीमत भी। बदलता है वक्त पल-पल, देख रहा हूं हरेक की नीयत भी। जो मिलते थे भोले चेहरे रोजाना, देख रहा हूं आज उनकी सीरत भी। बदलते वक्त में, देख रहा हूं सीरत, सूरत और नीयत भी। रोज निमंत्रण देने वालों की, देख रहा हूं पहचान भी। रोज मिलता हूं "सत्यता" के मनुष्य रुपों से, देख रहा हूं उनकी झूठी रंगत भी। रचनाकार - डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"                 अलीगढ़, उत्तर प्रदेश 

बाल दिवस -14 नवंबर

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बाल दिवस -14 नवंबर  बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू का,  जन्म दिवस अति पावन।  चौदह नवंबर जन्म दिन उनका,  बाल दिवस सुंदर मन भावन।  बच्चे मन के सुंदर होते,  नहीं कोई भेद और द्वेष।  प्रेम के भूखे, सीधे सरल,  समझें इनको सदा विशेष।  कोई भी सरल हृदय का स्वामी,  अवश्य करता बच्चों से प्यार।  भविष्य के सुंदर प्रसून ये,  सुखी रहे इनका संसार।  बाल रूप में राम, कृष्ण भी,  देवों, देवियों के थे अति प्यारे।  निज बाल रूप धर जन्म लिए,  थे विश्व की आँखों के तारे।  देवों, गंधर्वों ने गाई प्रशस्ति,  बाल्य क्रीड़ा थी अति प्यारी।  रूप, कृत्य से मोहित भुवन,  माता पिता जाएं बलिहारी।  बच्चे सच में भविष्य हमारे,  आशाओं के केंद्रविंदु।  स्वस्थ, मस्त,शिक्षित बने,  चमके जैसे पूर्णिमा का इंदु।  कोई भी बच्चा,कुपोषण का,  नहीं बने कभी भी शिकार।  वांछित जरूरतें अवश्य पूर्ण हों,  परिवार, समाज, राष्ट्र का पाएं प्यार।  इनका बचपन सुखमय बीते,  मिले उचित देखरेख, आहार।  उचित दिशा में करें तरक्की,  कभी देखनी पड़े न हार।  माता पिता के सपनों को,  मिले सदा नूतन आयाम।  निर्माण करें नेहरू का भारत,  खुशियाँ मिलती रहें तमाम।

न्याय मौन : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

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 न्याय मौन : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा" समाज का रूप बदला,  यहां हर कोई शेर है। अत्याचारों के नाम पर मानवता  ढेर है‌। घटनाओं के नाम पर राज्य बदले, जिले बदले, गांव बदले, शहर बदले। एक स्त्री का नाम बदला, उम्र बदली, लिबास बदले। हिंसा के रूप, हिंसक के नाम बदले। अपंग खड़ा है, कानून हिंसा के द्वार पर, रोज बलि चढ़ जाती है, एक स्त्री के मान की। जयकारा लगाते हैं, भारत माता की जय का। सड़क पर बेजान लाशें, पड़ी होती है, न जाने कितनी माताओं की। अखबारों में छपती खबरें, चलती टीवी पर बखान है। ना हालात बदले ना हिंसा बदली। सशक्त कहते हो,  महिलाओं को।   न जाने किस महिला की तस्वीर बदली। लेकर मोमबत्तियां निकलते हैं, सड़कों पर न जाने की यह कौन है। जानते हुए,   हिंसकों के परिचय, चेहरे फिर यह कौन मौन है? निकलते हैं,  एकजुट होकर मोमबत्तियां हाथ में लेकर तस्वीरों पर फूल माला लगाकर। फिर हिंसक कौन है ?  गुनहगार कौन है,  फिर कानून क्यों मौन है? बदल रही है,  तस्वीर एक सशक्त देश की। यहां भेड़िए भी घूमते हैं, खरगोश के भेष में। शिक्षा, सशक्तिकरण का क्या मोल  है? हर स्त्री आज भी हिंसा के नाम पर मौन है।

लक्ष्य

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लक्ष्य  सफलता     प्राप्ति     हेतु   ,  लक्ष्य    बनाना    होता  है  ।  लक्ष्य   प्राप्ति    हेतु    हमें  ,  कर्तव्य  निभाना  होता  है  ।  सफलता राह चलते मिलेगी,  यह  सोचना  भी  जड़ता है ।  इस     मामले    में    सदा  ,  मुँह  की   खाना  पड़ता  है । बिना    किसी    लक्ष्य   के ,  व्यक्ति   खुद   भटकता  है ।  सभी     लोगों    को     ही  ,  उसका  कार्य  खटकता  है ।  असफलता  अंततः  इसका  ,  दुष्परिणाम   ही    बनती है  ।  जीवन   पर्यंत   यह   क्रिया  ,  उसे  पीड़ा  बन  अखरती है । रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय   मुंबई ( महाराष्ट्र)

जीवन साथी

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जीवन साथी    साथ    निभाए   जीवन    भर  ,  हमको    ऐसा   साथ   चाहिए ।  पथरीले   जीवन     पथ    पर   ,  जीवन  साथी का  हाथ चाहिए । एक की भावना समझ सके जो ,  कुछ     भी       बिना     बताये ।  अहसासों    को  एक  दूजे   के ,  जान   सके  जो   बिना  जताये । कष्ट   एक   का  नही   अकेला ,  दूजे       का        बन     जाए  ।  पल   पल  लगे वर्ष   के   जैसा ,  विलग    नही       रह      पाए  । दिल   होकर  भी अलग  अलग ,  पर     धड़कन      एक      रहे  ।  शब्द   और   अर्थ  सा  मिलकर ,  जीवन      में      संगीत     बहे  । खुशी  एक  हो, गम  भी एक हो ,  दोनों     हारने      को     तैयार  ।  नहीं   जीत  की   कोई  लालसा  ,  बने     अनोखा     ऐसा    प्यार  । एक   की    इच्छा   दूजा   जाने  ,  उसकी    इच्छा    अपना   माने  ।  अनिच्छा      भी      पता   चले   ,  क्यों   अनिष्ट   की   जिद   ठाने  ।  साथ  जो   देता जीवन भर  का  ,  जैसे       दीया     और     बाती ।  प्राण   से   प्यारे  एक  दूजे  को  ,  होते      हैं      जीवन      साथी ।  रचनाकार- चंद्रकांत पाण्डेय महाराष्ट्र 

हाँ मैंने देखा है

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हाँ मैंने देखा है  हां मैंने देखा है चार पैसा कम कमाने वाले लोग भी, मिलने की कोशिश करते हैं, मैंने विरासत में करोड़ो पाने वालो को, छिपने में सुकून महसूस करते देखा है। हां मैंने देखा है, स्वर्ण की चादर ओढ़े हुए भी, लोग तारीफ के काबिल नहीं हो पाते, मैंने होठों पर मुस्कान रखने वालों को, सुंदरता का उदाहरण बनते देखा है। हां मैंने देखा है, दुनिया वालों की नहीं अपने दिल की सुना करो, कोई कितना भी रोके, अपने दृढ़ इरादे से पीछे मत हटो, क्योंकि मैंने वक़्त बदलने पर लोगो को, गिरगिट की तरह रंग बदलते देखा है। हां मैंने देखा है, कभी न दुःख सहने वाले, मामूली सी चोट पर रो देते हैं, मैंने हमेशा पीड़ा सहने वालों को, हर गम में मुस्कुराते देखा है। हां मैंने देखा है  घर परिवार सब मैंने देखा है, हसरत से मिलने घर आये मेहमानों को, लोग घमंड में दुत्कार देते हैं जो, मैंने उनके महलों के सन्नाटो मे, दीवारों को चिल्लाते देखा है। हां मैंने देखा है, बड़ी विचित्र दुनिया है ये यारों पराये भी सहारा दे देते हैं, मैंने यहाँ अपनों को अपनों से, किनारा करते देखा है। हां मैंने देखा है, कटु सत्य- मैंने देखा है, अधिकतर व्

तेरी याद

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तेरी याद कभी  याद    तेरी   भुलाती   नहीं  है। हमें  रात  भर   नींद   आती  नहीं  है।। मिटाने कि कोशिश करूं लाख दिल से। अदा   आपकी  भूली   जाती  नहीं   है।। शमा बुझ गई  आप  बिन  आशियां में। दिवाली  कि   रौनक  सुहाती  नहीं   है।। जहां में  हजारों कि  महफिल  जमा  है। कहीं   जान  मेरी    दिखाती  नहीं   है।। दिवाना    बना के    हमे    छोड़    बैठे। खता   क्या  किया  मै बताती  नहीं  है।। फिजा  जिस मका  में मधुर  गीत गाया। खनक  चूड़ियों   की  सुनाती   नहीं  है।। बहे   आंसुओं   से   भरा   है   समन्दर। वहां   एक    आंसू  बहाती    नहीं   है।। हमे  देख  गम  में  खुदा  रो   दिया  है। तरस वो तनिक फिर  भी खाती नही है।। बिना  जान  तेरे   न "रवि"   जिएगा। दवा  दर्द   दिल  का   मिटाती  नहीं  है।। रचनाकार- रवि कुमार दुबे  रेनुसागर, सोनभद्र 

नशे के गर्त में डूबता भारत का युवा वर्ग

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नशे के गर्त में डूबता भारत का युवा वर्ग इकीसवीं सदी का भारत एक युवा देश है। जहाँ एक तरफ हम तमाम बुलंदियों को छू रहे है और नए नए कृतिमान स्थपित कर रहे है, वहीं दूरसे ओर भारत का युवा पीढ़ी नशे के गर्त में डूबता जा रहा है। यह एक सोचनीय विषय है कि जहां सरकार भारत को नशा मुक्त करने के तमाम विज्ञापन और विभिन्न पहलुओं पर काम कर रही है वहीं नशा युवा पीढ़ी के लिए शौक और जरूरत का विषय बनता जा रहा है। आज कल की शादी, पार्टी और किसी अन्य समारोह में शराब का सेवन तो एक सामान्य सी बात हो गई है, बिना शराब और मादक पदार्थों के यहां अधूरापन दिखायी देता है। कहीं कहीं तो ऐसा भी देखा जा रहा है कि पिता और पुत्र दोनों साथ में बैठ के जाम छलका रहें है और खुद को गौरवान्वित महसूस करा रहें हैं।  भारत का युवा वर्ग नशे में डूबता हुआ एक समस्या है जिसे समाजिक, स्वास्थ्यिक, और मानसिक समस्याओं का कारण माना जाता है। नशे की लत युवाओं को असामान्य रूप से प्रभावित करती है और उनके भविष्य को भी खतरे में डालती है। इस समस्या के पीछे कई कारक हो सकते हैं, जैसे कि सोशल दबाव, मानसिक तनाव, असंगठित जीवनशैली, और अन्य सामाजिक म

कैसे उठती है अर्थी इस मानवता की!

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कैसे उठती है अर्थी इस मानवता की! हमने तपता व्योम निहारा और बेंवाई फटी धरा की। हमने देखा, कैसे उठती है अर्थी इस मानवता की।। भूंखी, प्यासी, पीड़ित, व्याकुल आने वाली तरुणाई के, नयनों में आंसू देखे तो पीड़ा गाई भारत मां की ।। हमने देखे हैं मधुवन में तितली पर बाजों के पहरे । हमने देखे जख्म फूल की पंक्खुड़ियों पर बेहद गहरे।। हमने साक्षी और निर्भया की देखी हैं जली चितायें, फिर बोलो तो कैसे लिख दे हम श्रंगारिक गीत सुनहरे।। हमने ऐसी अबलावों के औ उन सबकी पूज्य अना की, आंखों में आंसू देखे तो पीड़ा गाई भारत मां की ।। हम शब्दों के बाजीगर हैं हमने शब्द रचे औ तोड़े। शब्दों से ही हृदय विदारे टूटे हृदय शब्द से जोड़े।। इन शब्दों ने कुरुक्षेत्र में युद्ध महाभारत रच डाले, हमने शब्दों के प्रति जब निज कर्तव्यों से मुह मोड़े।। समर उज्र मां गांधारी के केशव के प्रति शब्दावलि की, आंखों में आंसू देखे तो  पीड़ा गई भारत मां की ।। कवि- नितिन मिश्रा निश्छल रतौली, सीतापुर, उत्तर प्रदेश

शरीर

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शरीर शरीर  प्रभु  की  सुंदर  देन ,  सत्कर्मों  का प्रबल आधार ।  सदा   स्वस्थ   रखें   इसको ,  यथोचित रखें अपना आहार।  स्वस्थ शरीर  में  स्वस्थ  मन ,  करता सदा सुखमय निवास।  समृद्ध और आनंदित रखता ,  हमारा निरंतर होता विकास ।  सुंदर  काया चंचल  मन  पर ,  करना  नहीं कभी अभिमान ।  मिट्टी  का  तन   मिट्टी  बनेगा ,  कर  लो  इससे  कार्य  महान ।  काया   ही  माया  का  सदन,  ममता  का    सुंदर    निवास।  आदर्श   इसे    ऐसा  बनाओ ,  हर  अनीति  का  हो विनाश ।  गर्व     कभी    करना   नहीं  ,  काया    जर्जर    हो  जाएगी ।  आत्मा   नया  तन  पा  लेगी  ,  दुनियाँ  इतिहास    सुनायेगी ।  इस   शरीर    के     रहते  ही ,  दुनिया  के  सब  रिश्ते  नाते ।  ईश्वर   अंश    के   जाते   ही ,  हम  क्या  से क्या  बन जाते ।  पानी  का  बुलबुला  यह  तन ,  कह    गए       दास    कबीर ।  मिट्टी     ही     बन    जाएगी  ,  आकर्षक  और  गोरी  शरीर  ।  जब   तक   प्रभु   रखें    इसे  ,  इसका   रखो    सदा   ध्यान  ।  तलवार    जब     रहे     नहीं  ,  क्या    करे    अकेले    म्यान  ।  रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय  मुंबई /

खिलाफत

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खिलाफत  ए ताज ए शान ख़िलाफत के बगैर खाली है, तुम्हारे रब से अभी कुछ मेरा हिसाब बाकी है।। जश्ने बहार ख़िलाफत से ही तो आती है, बिना ख़िलाफत के मानों जिंदगी ही खाली है।। नाज़ करते हैं तुम्हारी ख़िलाफत से ही हम हैं, आज ये मुकाम ये मंजिल तुम्हारी ख़िलाफत से है।। ख़िलाफ़ कितने थे मुझे इसका कोई गम भी नहीं है, बस वफ़ादारी से जो खिलाफत की जंग जारी है ।। इस बेनूर को नूर बनाने में ख़िलाफत की भागीदारी है, रजामंदी में भी ख़िलाफत का दौर जारी है ।। वादियों में भी ख़िलाफत की पहरेदारी है, तुम्हारे रब से अभी कुछ मेरा हिसाब बाकी है।। रचनाकार - आशीष मिश्र उर्वर कादीपुर, सुल्तानपुर

पिता जी

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पिता जी  पिता समान कोइ नहीं, पिता ही सब संसार। पिता सूर्य परिवार के,  करे दूर अंधकार।१। चरणों में भागीरथी,  चरणों में सब धाम।   सातों अम्बर में नहीं,  पिता जैसा निष्काम।२। खिलता बचपन बाँह में,  नैनों में विश्वास ।  दिल में दरिया प्रेम का, हो पल-पल आभास।३। दिव्य भव्य उपहार है,  ईश्वर का वरदान। धरती के भगवान ये,  हर दिल का अभिमान।४। पिता ही स्वाभिमान है,  पिता ही अभिमान। पिता ही जीवन सार हैं, पिता ही हैं सम्मान।५। पिता बिना कुछ भी नहीं,  नहीं सुख का भान।  पिता बिना जीवन जहर,  बंजर मरू समान।६।  - सुखमिला अग्रवाल भूमिजा   जयपुर, राजस्थान

काया जब होवे निरोगी

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काया जब होवे निरोगी जीवन में उत्साह रहेगा, कर्म पुण्य मय जब उपयोगी। तन भी साथ तभी तो देगा, काया जब होवे निरोगी।। स्थिर पानी सड़ जाता है, पड़ा लौह तो जंग खाता है। मानस की निष्क्रियता से, बुद्धि शक्ति भी घट जाता है।। कर्म तुम्हारे जब पवित्र हो, प्रकृति बने सहयोगी.... तन भी ऊर्जस्वित मन बने सदा तो खिलता बचपन मधुमय यौवन। जड़ता से जड़त्व पनपता, बुरे विचार से तिमिरच्छन मन।। शुद्ध आचरण करना सीखो, प्रण करें, जैसे हठ योगी....तन  मन को दृढ़ करके सतपथ पर, बढ़ें चलो जैसे यह दिनकर। पथ आलोकित तभी बनेगा, बुद्धि विवेक मन हो सहचर।। पाखंडी मत बनना प्यारे, जस समाज में ढोंगी....तन भी समय चक्र यह चलता प्रतिपल, परिवर्तन तो होता हर छन। भ्रष्ट आचरण, पापाचर से, बद्ध दिखे समाज यह कतिपय।। सर्वानंद तभी फैलेगा, मन बुद्धि पवित्र जब होगी....तन भी किसको दोष दिए जाते हो, अपने खुद न संभल पाते हो।। अपने खातिर सुख सुविधाएं, संग्रह बस किए जाते हो।। पर उपकार की कीमत समझो, बनो न इतना भोगी....तन भी साथ तभी तो देगा, काया जब होवे निरोगी।।          रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा                          सुंदरपुर

कृष्ण सा "किशू " है तू

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कृष्ण सा "किशू " है तू क्या कहूं कितना सुखद पल था, दर्द था पर मरहम सा था, मातृत्व के सुख से तुमने मुझे सजाया था.. मुख पर तेज, गोरा सा मुखड़ा, डिंपल से सजती मुस्कान तेरी प्यारी, दुनिया मुझे तो लग रही थी जन्नत से भी प्यारी... तुम्हारे नन्हे नन्हे हाथों का स्पर्श मुझे आनंदित कर रहा था, कृष्ण सा "किशू" मेरे प्यारी थपकियों से सो रहा था.. न मुझे दिन की सुध थी, न रात होने की खबर थी, हर पल हर वक्त तेरे गाल पर वो डिंपल वाली हंसी के लिए जान लुटाती थी.. ऋतु आए , ऋतु बदले, कितनी हरियाली आई, "मां" शब्द सुन तेरे मुख से, अंखियां खुशी से भर आई.. "शुभम" से अब तू "शुभ" कहलाया, मां, पिता के प्यार स्नेह को कोई कहां भूल पाया.. क्या हुआ जो कुछ मीलो की दूरी पर हम हैं, प्यार, स्नेह की डोर कहां कम है... जन्मदिन पर हवाओं संग भेज रही हूं शुभाशीष, कामयाबी के मंजिल को पाना, डिंपल वाली तेरी हंसी  बनी रहे हमेशा, देते हैं हमलोग यही आशीष.. 🖊️उमा पुपुन रांची, झारखंड

किताबों की दुनियाँ

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किताबों की दुनियाँ       इल्म, अकल, अकीदत की, ये होती अद्भुत आगार। गुरवत भी मिटती है इनसे करती है, जीवन श्रृंगार।।       पुस्तक के वाचन से पाते, हर विषयों का नीत हम ज्ञान। शोहरत भी उनको दिलवाती, लिखते है जो ग्रंथ महान।।         कुछ तो हमें हंसाती है, कुछ तो हमें रुलाती है।  सच्चे मित्रों की भांति वे, अपना फर्ज निभाती है।।          नया सिखाए प्रतिपल वे, पुस्तक ज्ञान की सागर।   ज्ञान पुंज वे ज्ञान प्रदाता, सद बद बुद्धि की गागर ।।          सही पुस्तकों से हम पाते, सुधी जनों के दिव्य विचार।   दुनियां की गतिविधियों का, मिलता हमको ज्ञान अपार।।           कितने अवतारी पुरुषों ने, पाया इनसे भव्य विचार।   इनके नियमित पाठन से, मिटता संशय व कुविचार।।          कठिन समय में पुस्तक होती, सचमुच जीवन साथी।   कवि और साहित्यकारों की, जीवन भर की थाती।।          पुस्तक से ही वर्ण सीखते, पाते है लौकिक सम्मान।   जीवन के हर प्रश्नों का, मिलता हमको समुचित ज्ञान।।          शोहरत और इल्म है देती, रोशन इससे जहां ने माना।   ईश्वर की नेमत है किताबें, पढ़कर हमने यह पहचाना।।           इसीलिए तो कहता हूं,

महाराणा प्रताप जयंती - 9 मई

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महाराणा प्रताप जयंती  शौर्य प्रतिमूर्ति  महाराणा  प्रताप का,  अवतरण पुनीत, पावन दिवस आज। युग -युग के प्रेरणास्रोत  महापुरुष वे,  अविस्मरणीय  रखेगा  उन्हें  समाज।  हल्दी   घाटी   वह   पुण्य  भूमि   है,  जहाँ  राणा का शौर्य  था   मूर्तिमान।  कण-कण में जहाँ बलिदान  समाया,  कीर्ति  अमर, अखंडित, देदिप्यमान। राणा     प्रताप   का   नाम   अमर,  सर्वदा     अमर    उनकी   कुर्बानी।  भारत    भूमि    वीरों    की   भूमि,  राजस्थान   की  अनकही  कहानी।  शौर्य,    त्याग,      वीरता     गाथा, जानता    अवश्य   हर   हिंदुस्तानी।  पराक्रम  उनका  शदियों  तक  गूँजें,  देशभक्ति    की    अमर    निशानी।  हल्दी    घाटी    का    जर्रा  -  जर्रा  ,  प्रमाण      वीरता       की    कहता ।  कौन    जानता    नहीं   प्रताप  को  ,  हिंन्दुस्तान     में       जो      रहता  ।  हल्दी    जैसी    पीली  मिट्टी   घाटी,  नाम  पड़ा   इसी  से   हल्दी  घाटी ।  राजस्थान      की      पूज्य    भूमि ,  वतन पर  मर   मिटने की  परिपाटी।  चेतक   एक   बड़ा   गवाह   स्वयं,  राणा    की    वीरता    अनुपम  है।  मुगलों   को    धूल   

दान

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दान कुछ खास  गुणों के कारण ही,  मनुष्य  जग   में  बना  महान।  स्वतः    हेतु    नहीं जीता  है,  निर्धनों     को  करता   दान। बड़े-बड़े    ज्ञानी गुरुजन  तो,  करते  स्वतः  विद्या का  दान।  माँ  लक्ष्मी  की  कृपा जिन पर,  धन   दौलत  दे पाएं  सम्मान।  कई   तरह  के  दान  विश्व  में,  सबका  अपना -अपना  सम्मान।  अन्नदान,  श्रमदान,  रक्तदान,  अंगदान   भी  बड़ा   महान। बड़ी    प्राचीन  और  सम्मानित,  दान      की  यह  सुंदर  प्रथा।  राजा   हरिश्चंद्र    का  राज्यदान,  जग प्रसिद्ध  यह  उत्तम  कथा।  प्रत्येक  दान  में  सबसे  ऊपर, सर्वाधिक   चर्चित   कन्यादान ।  माता - पिता   आनंदित  होते, अत्यंत प्राचीन यह दान विधान। दानवीरों  की  यह  धरती  है,  अनादिकाल   से  आज  तक।  जग कल्याण हेतु दान  किए,  निज  शरीर  भी राज   तक।  महात्मा शिवि,  ऋषि   दधीचि,  दानवीर कर्ण और  बालि महान।  खुद   की   चिंता  नहीं   किए,  किए    एक   आदर्श  निर्माण।  दानी  जग  में  सदा  से  पूजित,  आज  भी उनका ऊँचा  स्थान।  अत्यंत  पुनीत  यह  कार्य  है,  मिले     सदा मान  सम्मान।  अगर   प्रभु    ने  आपको   भी,  सक्षम 

मेरे गाँव की मिट्टी

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मेरे  गाँव  की  मिट्टी  मेरे   गाँव   की   ,   मिट्टी    मुझको  ,  लगती     माँ   ,   जैसी   ही  प्यारी  ।  हर   कण    में  ,    प्यार  बसा    है  ,  दिखती    दुनियाँ  , भर   से  न्यारी  ।  इस   पावन   मिट्टी   में  ,  पले  बढ़े  ,  बचपन     बीता   ,    जवान     हुए  ।  दादा , परदादा  की, जन्मभूमि  यह  ,  सारे     सपने  ,     आकार     लिए  ।  हर   दरवाजे  पर  ,  नीम   का  पेड़  ,  माँ    तुलसी  हैं    ,  हर  आंगन   में  ।  गाय  ,   भैंस  ,  बँधी   दरवाजे  पर  ,  झूला     झूलते   ,   हर   सावन   में  । चिड़ियों   का    झुंड  ,  गीत सुनाए  ,  बाँसों  का    झुरमुट  , शोर  मचाता  ।  अंबर   में    बादल  , तैरते    दिखते  ,  हर     मौसम   ,   मन    को   भाता  ।  शहरों    में   चकाचौंध   , फिर   भी  ,  मुझको      मेरा  ,    गाँव    बुलाता  ।  मन    की    शांति  ,  वहाँ    ही    है  ,  बार - बार   दिल  ,  यह   समझाता  ।  अम्मा     रोज   ,    सबेरे   जागकर  ,  हमें      जल्द    ,   जगा    देती  थीं  ।  उचित  - अनुचित ,  सब  भेद  हमें   ,  अक्सर     ही  ,  समझा   देतीं   थीं  ।  बाबू

आज भी है

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आज भी है तू नसीब में नहीं है मेरे, पर मोहब्बत तो आज भी है। हमसफ़र नहीं है तू मेरा,  पर दोस्त तो आज भी है। मुकद्दर में नहीं है मेरा संग तेरे चलना, पर दिल में आशियाना आज भी है। बिछड़ कर तुमसे दर्द होता है मुझे, पर दोस्ती की मरहम आज भी है।   रचनाकार- प्रतिभा जैन  टीकमगढ़ मध्य प्रदेश

एक पारितोषिक ऐसा भी

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एक पारितोषिक ऐसा भी कितनी मजबूरी, बेबसी होती है.... उफ्फ ये मजदूरी.... पापी पेट के सवालों पर, स्वयं को धूप में जलाती... उफ्फ ये मजदूरी..... हाथ मिट्टी, बालू और सीमेंट से सने होते, एक साथ कितने ईंटों को सर पर रखते... जैसे परिवार के हर लोगों के नाम की ईंटों की संख्या , सर पर सजाते....... उफ्फ ये मजदूरी... जाने कितनी सीढ़ियों पे, लड़खड़ाते कदमों से चढ़ते... पसीने से तर बतर होते... फिर भी थक कर न बैठते.. उफ्फ ये मजदूरी.... अपने तौलिए से पसीने को पोंछते... फिर कमर में उसे बांधते... सर पर ईंटों को रखते.. सूरज की तपिश कम होते.. शाम होने का अनुमान लगाते... खून पसीने की कमाई को ... सर से लगाते..... मुन्ना, मुन्नी की मिठाई और चॉकलेट के लिए पैसा अलग रखते... मुन्नी की अम्मा की फटी साड़ी याद आती.. कुछ खाने के सामान, साड़ी ले आते... अपने लिए कुछ न सोचते... सबके चेहरे की मुस्कान देख.. अपनी थकान भी भूल जाते उफ्फ ये मजदूरी..... चल देता अगली सुबह, अपनी घर की खुशियों की खातिर खुद को  धूप, बारिश को समर्पित  करता.... थोड़ी सी देर होने पर मालिक की गाली तक सुन जाता.... उफ्फ कैसी ये मजबूरी, मजदूरी