न्याय मौन : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

 न्याय मौन : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

समाज का रूप बदला,  यहां हर कोई शेर है।
अत्याचारों के नाम पर मानवता  ढेर है‌।
घटनाओं के नाम पर राज्य बदले, जिले बदले, गांव बदले, शहर बदले।
एक स्त्री का नाम बदला, उम्र बदली, लिबास बदले।
हिंसा के रूप, हिंसक के नाम बदले।
अपंग खड़ा है, कानून हिंसा के द्वार पर,
रोज बलि चढ़ जाती है, एक स्त्री के मान की।
जयकारा लगाते हैं, भारत माता की जय का।
सड़क पर बेजान लाशें, पड़ी होती है, न जाने कितनी माताओं की।
अखबारों में छपती खबरें, चलती टीवी पर बखान है।
ना हालात बदले ना हिंसा बदली।
सशक्त कहते हो,  महिलाओं को। 
 न जाने किस महिला की तस्वीर बदली।
लेकर मोमबत्तियां निकलते हैं, सड़कों पर न जाने की यह कौन है।
जानते हुए, 
 हिंसकों के परिचय, चेहरे फिर यह कौन मौन है?
निकलते हैं,
 एकजुट होकर मोमबत्तियां हाथ में लेकर तस्वीरों पर फूल माला लगाकर।
फिर हिंसक कौन है ?
 गुनहगार कौन है,  फिर कानून क्यों मौन है?
बदल रही है,  तस्वीर एक सशक्त देश की।
यहां भेड़िए भी घूमते हैं, खरगोश के भेष में।
शिक्षा, सशक्तिकरण का क्या मोल  है?
हर स्त्री आज भी हिंसा के नाम पर मौन है।
भड़कती है ,
जब  चिंगारी हर सीने में  न्याय की
तो फिर क्यों मूरत मौन,  न्याय की।
सब शब्दों का खेल है,
सशक्त भारत आज भी,
नारी सशक्तिकरण से दूर है।
आंखो पर पट्टी बांधे, न्याय की मूरत बैठी है,
न्याय के नाम आज भी, न्याय से नारी कोसों दूर है।

रचनाकार- डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"
              अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
        

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