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अभिलाषा

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अभिलाषा   देश  हमारा   उन्नति   करे,  नित  रचे  नए  आयाम ,  सभी   सुखी   संपन्न  हों,  समृद्धि   हो  अविराम । रहें   सुरक्षित   देशवासी ,  विपत्ति   कभी न  आए ,  भूकंप,  सुनामी , चक्रवात,  संक्रामक  रोग न छाए । शिक्षा, तकनीक के क्षेत्र में, दुनियाँ में हों सबसे आगे,  विश्व  गुरु  की  परंपरा, फिर  से बढ़े विरासत  आगे । माहौल  हो सुख  शांति का, अशांति   हो  कोसों दूर ,  सभी  को  रोटी, कपड़ा, मकान , खुशियाँ हों भरपूर। उर्वरा  शक्ति  बढ़े   खेतों    की , भरी  रहे  हरियाली ,  बेरोज़गार  युवा  ना हों , चारों ओर  छाए खुशहाली । नदियाँ  जलयुक्त रहें , सिंचन क्षमता का हो विकास,  खाद्यान्न  की  कमी  ना  हो,   हिंसा  का हो विनाश । हिंदी  भाषा का गौरव बढ़े, खेलों में बढ़े देश का मान,  भारत  की  कीर्ति बढ़े, हो  विश्व में  इसका गुणगान।  रामराज्य सी प्रजा सुखी हो, रहे प्राणियों में सद्भावना ,  देशअनुकरण  करें  हमारा, समृद्ध हो  बंधुत्व भावना। रचनाकार- चंद्रकांत  पांडेय   मुंबई ( महाराष्ट्र  )

जब प्रेम दया का भाव नहीं

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जब प्रेम दया का भाव नहीं घर समाज में फैली कटुता, पहले जैसा प्यार नही । कैसे खुशी धरा पर आए, जब ईमान से प्यार नही।। स्वास्थ्य भला कैसे चंगा हो, शुद्ध मिले आहार नहीं। पैसे की लालच है इतनी, उज्ज्वल कारोबार नही।। घटतौली, विष तुल्य मिलावट, मिटने का आसार नहीं। अपनी वाली करें सभी जन, करुणा का उद्गार नहीं।।  दया, प्रेम, मानवता के संग, दिखता अब व्यवहार नहीं। अपनी निज उन्नति की चाहत, दूजे का उपकार नहीं।। कैसे विश्व गुरु अब होंगें, न्यायोचित जब आचार नहीं । बच्चे अपने कैसे सुधरें, अच्छी संगत संगसंस्कार नहीं ।। देश में कैसे बने एकता , कुल में ही, नैतिक सार नही। जीवन अब है नहीं सरल, सत्य आचरण आधार नहीं।। परनिंदा, ईर्ष्या का तांडव, परहित, पर उपकार नही। हर घर की है हालत बिगड़ी, आपस में, अब प्यार नही।। बद अमली अब पैर पसारे, जब चरित्र आधार नहीं। कितने और पतित हम होंगे, सोचें जब एक बार नही।।  रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा                  सुंदरपुर  वाराणसी

काश मैं छोटा-सा नटखट कान्हा होता

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काश मैं छोटा-सा नटखट कान्हा होता  काश मैं छोटा-सा नटखट कान्हा होता तो  मेरे लिए वो छोटी-सी प्यारी राधा रानी बन जाती! जी भर के अपनी प्यारी राधा रानी से सच्चा प्रेम करता, उसे बड़े प्यार से पास बुलाकर गले लगाता! सुख-दुख में हमेशा उसे साथ देता, अपना सच्चा प्रेम का एहसास कराता! दोनों एक साथ ख़ूब खेला करते, एक दूजे को बहुत फ़िक्र रखा करते! मधुवन में वो मेरी प्रतीक्षा करती, उसके लिए कुरकुरे और डेयरी मिल्क लाकर देता! बड़े चाव से वो कुरकुरे और डेयरी मिल्क खाती, बीच-बीच में मीठी-मीठी बातें भी करती! सावन के झूले पर उसे प्यार से बिठाता, जी भर के उसके साथ हंसी और ठहाका लगाते! चंद्रमा की चांदनी में हम दोनों की मधुर मिलन होती, पास मेरे धीरे-धीरे आते ही वो सिसक जाती! चांद-सा मुखड़ा उसकी देखा करता, अपलक उसकी सुंदरता को निहारा करता! उसे अपना दिव्य रूप का दर्शन कराता, हम दोनों के पुनर्जन्म का स्मरण कराता! किस्मत में ना सही पर दिल में हमेशा उसे बसाकर रखा करता, पास होती मेरे पास तो उसे कभी अकेला नहीं छोड़ता! जबतक मेरी दो पल की ज़िंदगी रहती, उसके आंखों में कभी आंसू नहीं देख सकता!    

आइए पढ़ते हैं शेख रहमत अली बस्तवी जी द्वारा लिखी गजल

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                ग़ज़ल दिल नशीं तुमसे  प्यार कर बैठे।  ख़ुद  को हम  बेक़रार  कर बैठे।।  प्यार शिद्दत  से  किया है तुमसे।  जाने   क्यों  ऐतबार   कर  बैठे।।  एक वादा जो मुस्कुरा के किया।  उम्र   भर    इंतज़ार   कर   बैठे।।  तन्हां भटका है इस क़दर  कोई।  ज़िंदगी  अपनी  ख़ार  कर  बैठे।।  आँखों से अश्क यूं  बहे "रहमत"।  दिल   मिरा  तार-तार  कर  बैठे।।  - शेख रहमत अली" बस्तवी" बस्ती (उ, प्र,) 

बेटी मेरी परछाई है

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बेटी मेरी परछाई है नन्ही सी परी है तू आसमान से आई है।  फूल नहीं कली है तू बेटी मेरी परछाई है।।  आंगन की बिजली है  सुनहरे रंग की तितली है,  भंवरों के पीछे दौड़ने वाली मन मौजी मन चली है।  कोना-कोना महकजाये मुस्काती मंद पुरवाई है।  फूल नहीं कली है तू बेटी मेरी परछाई है।।  तुम्हारी आहट से ही पापा के चेहरे पे मुस्कान है,  तुम पर ओ मेरी गुड़िया मेरा सबकुछ क़ुरबान है।  सूने आंगन में आकर खुशियां तूने फैलाई है।  फूल नहीं कली है तू बेटी मेरी परछाई है।।  - शेख रहमत अली "बस्तवी" बस्ती (उ, प्र,) 

हाल ए दिल बयां करूं भी तो कैसे

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हाल ए दिल बयां करूं भी तो कैसे नानी, दादी के किस्से हो गए फजां से गुम, अब तो दरो दीवार से लोरी की गूंज सुनाई देती है... हमने जरूरत से ज्यादा खुशियां देने की ठानी थी, आंसू के सैलाब में, तन्हाई अब दोस्त हमारी है... पता नहीं गलती से गलती कहां हो गई, अब तो मोबाइल पर भी तस्वीर कहां तुम्हारी है... सोचा था उसके हर पल का हिसाब रखूंगी, गिनने को तो वक्त भी अब कहां बाकी है... हाल ए दिल बयां करूं भी तो कैसे, मेरी दुखती कलम में रोशनाई कहां बाकी है.. शीशे के टूटने की परवाह कौन करे भला, अश्कों के संग बिखरने की बारी हमारी है... उमा पुपुन की लेखनी से... रांची, झारखंड

बेटी दिवस

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  बेटी दिवस  पापा के सिर की पगड़ी मां हाथों की कलछुल बेटी, रिद्धि सिद्धि दो कुल है बेटी। पापा के सिर की पगड़ी, संबन्धों की डोर कड़ी। बाबा की मर्यादा है, नये सृजन का वादा हैं। आजी की है प्राण लली, मन जूही अनखिली कली। भाई का विश्वास है वो, वही करेगी कहेंगे जो। भाभी की चंचला सखी, बोझिल मन की दवा चखी। बच्चों की हमजोली है, कंथा मंथा गोली हैं। अपने चाचा की प्यारी, लाती भोजन की थारी। चाची के है लिए खिलौना, जब तक गोद न आता छौना। पूरे घर की किलकारी, खिला सुमन आंगन क्यारी। इसके बिन न राखी पर्व, जिनके बहन है करता गर्व । नवरात्री दुर्गा माता, करवा चौथ तीज नाता। लक्ष्मी गौरी का प्रतिरूप, कभी है छाया कभी है धूप। बेटी से संस्कृति पहचान, बेटी ने रखा है मान। कभी बनी सीता सावित्री, संतोषी काली गायत्री। बेटी से संसार सृजन, इसकी शिक्षा का लें प्रन। इसे बचायें इसे पढ़ायें, भारत की संस्कृती बचायें।। - डाॅ0 रामसमुझ मिश्र अकेला

शून्य सी चिंतन करती

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शून्य सी चिंतन करती शून्य सी चिंतन करती, क्या उसके जन्म पर शिकन मां पिता के माथे पर बेहिसाब आए होंगे.. पालन पोषण फिर दहेज भाव थोड़ी खुशी थोड़ा गम का  समावेश दिल में छिपाते होंगे.. फिर वही बिटिया जान बन गई मां पिता की मुस्कान बन गई.. कितना बदल गया है अब समय, हर बात पर मनाते हैं उत्सव.. बेटी दिवस पर मनोभाव लिख  अपने प्रेम को अंकित करते बेटी के मस्तिष्क पर, वक्त भी अब बेवक्त हो गया है, कहीं बेटी नहीं, कहीं मां पिता नहीं कौन चूमे उसके ललाट को, गले लगा कर उसे स्नेह कर जाए.. उन पसीने की बूंदों को पोंछ रही होती, अपने वजूद पर खुद इठला रही होती.. देख नहीं पा रही हैं ये अंखियां, बरस रही हैं उनके प्यार की बूंदे अनगिनत, बेहिसाब वैसे ही, मेरे मन में मानो कोई तूफान उठा हो जैसे.. समेट रही हूं उनके स्नेह को आंचल पसार महसूस किया है मेरे ललाट पर  मां पापा के स्नेह का चुम्बन लगाया मुझे भी "बेटी" कहकर आलिंगन  झूम रही हूं उनका स्नेह पाकर वैसे ही, मोरनी झूमती जैसे मेघपुष्प देखकर... - उमा पुपुन की लेखनी से रांची, झारखंड

आइये पढ़ते हैं पं० आशीष मिश्र उर्वर जी द्वारा लिखी रचना- यादें

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आइये पढ़ते हैं पं० आशीष मिश्र उर्वर जी द्वारा लिखी रचना- यादें    यादें  भुलाओगे जितना पास आती हैं यादें, अकेले में अक्सर रूलाती हैं यादें । अपना बनाकर सताती हैं यादें, रूलाती हैं हमको हंसाती हैं यादें। जगाती हैं हमको सुलाती हैं यादें, यादों में अक्सर याद आती हैं यादें। दिल के कोने में बस जाती हैं यादें, रह रह कर अक्सर चुभ जाती हैं यादें। हर मौसम में याद आती हैं यादें, मगर कम नहीं कुछ तरक्की की यादें, हर सुख-दुख के लम्हें बताती हैं यादें। जीवन को राह दिखाती हैं यादें, हर लम्हो की याद दिलाती हैं यादें। हर पल याद में चुभ जाती हैं यादें, बीते हुए कल को बताती हैं यादें। गुनाहों को तेरे गिनाती हैं यादें , हंसाती हैं हमको रूलाती हैं यादें। जिंदगी की दूरियां मिटाती हैं यादें, गिराती हैं हमको उठाती हैं यादें। जीवन की कड़ियां बनाती हैं यादें , चुभा कर हृदय को दुखाती हैं यादें। हर सुबह कुछ नया सिखाती हैं यादें, बिन मौसम बरसात कराती हैं यादें। भुलाओगे जितना पास आती हैं यादें , अकेले में अक्सर रूलाती है यादें।। साहित्यकार एवं रचनाकार-  पं० आशीष मिश्र उर्वर कादीपुर, सुल्तानपुर समाचार व

अंजाम

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अंजाम  खतरों     से      खेलने     वाले ,  अंज़ाम    नहीं     ध्यान   करते ।  दिन    रात     कर्मशील   बनते ,  प्रतिपल  उद्देश्य  में आगे  बढ़ते।  सीमा    पर     तैनात   सिपाही ,  खतरे  से  नहीं  बिल्कुल  डरता।  जान     हथेली     पर     लेकर , कदम  दर  कदम  आगे  बढ़ता।  विद्यार्थी    पूरी    तन्मयता   से ,  निज  विद्याभ्यास  में  लीन रहे ।  शिक्षक   अपनी   कक्षाओं    में ,  कर    समर्पण     तल्लीन   रहे ।  क्या  होगा    अंज़ाम    सोचकर ,  कभी     नहीं     घबराया  करते ।  पूरी     ताक़त   लगा   कार्य   में  ,  अपनी किस्मत आजमाया करते ।  अंज़ाम  मिले    मनमाफिक   तो ,  खुशियाँ   दरवाज़े   दस्तक  देती ।  असफलता दुर्भाग्य से मिले अगर ,  फिर   प्रयत्न   का  अवसर  देतीं ।  रचनाकार- चंद्रकांत पांडेय मुंबई / महाराष्ट्र