भौतिक समृद्धता, स्थायी सुख का कारण नहीं : डॉ दयाराम विश्वकर्मा

भौतिक समृद्धता, स्थायी सुख का कारण नहीं : डॉ दयाराम विश्वकर्मा 
       (एक आध्यात्मिक चिंतन)
           वर्तमान संदर्भ में सुख की अवधारणा अलग अलग व्यक्तियों के लिए अलग अलग होती है, लेकिन आमतौर पर सुख एक भावी और मानसिक स्थिति माना जाता है, जिसमें व्यक्ति को तृप्ति, संतोष और आनंद का अनुभव होता है। सुख की धारणा सभी लोगों के लिए सामान्य रूप से अच्छा स्वास्थ्य, सुखद सामाजिक संबंध, आर्थिक सुरक्षा, परिवार कार्य सुरक्षा, आत्म सम्मान, स्वतंत्रता और  मानसिक सुख आदि के माध्यम से प्राप्त होता है।
 आचार्य तुलसी ने राम चरित मानस में लिखा है,
 काहू न कोऊ सुख कर दाता।
 निज कृत कर्म, भोग सब भ्राता।।    
 हम जिस नियत को धारण कर कर्म करते है, वैसा ही फल हमें प्राप्त होता है। श्रीमद भागवत पुराण में श्री कृष्ण ने अपने नंद बाबा से कहते है कि, 
 कर्मणा जायते जंतुः, कर्मणैव प्रलियते।
 सुखम, दु:खम, भयम्, क्षेमम्, कर्मणैव भिपद्यते ।।
 यानि कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख भय और मंगल की प्राप्ति होती है। वैसे देखें तो जन्म  मरण, सुख, संपत्ति, विपत्ति, कर्म, काल, पृथ्वी, भवन, धन, पुर, परिवार, स्वर्ग, नरक आदि की पूरी व्यवहारिक सत्ता का मूल मोह ही है। जन्म, मृत्यु , सुख दुख का संबंध शरीर से संबंधित है, यह आत्म का विषय नहीं है।आत्मा का स्वभाव परम पवित्र होता है।आत्म अनंत ज्ञान व शक्ति से परिपूर्ण है।भौतिक सुख वास्तव में क्षणिक होता है, जब की आत्मिक सुख स्थायी होता है। सुख को समझने हेतु एक उदाहरण पर ध्यान दें।
 
जब हम मिठाई खरीदते हैं, तो यह धन का सुख, जब हम इसे खाते हैं तो इससे शरीर का सुख मिलता है, जब हम इसे अपने प्रिय जनों में वितरित करते हैं, तो इससे मन का सुख मिलता है।जब कोई छात्र अपनी कक्षा में प्रथम आता है, तो उसे बुद्धि का सुख प्राप्त होता है।और यदि किसी व्यक्ति में दूसरों की सहायता करने से सुख प्राप्त होता है, तो वह आध्यात्मिक सुख के अंतर्गत आता है, आध्यात्मिक सुख का आधार ही त्याग, दया, करुणा, सहानभूति, सत्य, प्रेम आदि की नींव पर टिका होता है। भौतिक पदार्थों से आत्मिक सुख की प्राप्ति बिलकुल असंभव है।सुख का संबंध मानसिक अवस्था से जुड़ा होता है। हम मन से ही सुख, दु:ख महसूस करते है।
 सुख में शारीरिक सुख, शरीर निरोगी हो तो प्राप्त होता है। मानसिक सुख मन की प्रसन्नता से प्राप्त होता है।सामाजिक सुख मित्रो, प्रिय जनों, व सगे संबंधियों के सुखद आचरण से मिलता है। आर्थिक सुख अर्थ की प्रधानता से प्राप्त होता है।
 अब सुख पर विचार करने के पश्चात दु:ख पर ध्यान केंद्रित करें।दु:ख का उदाहरण यदि आप का हजारों रुपए खो जाए तो यह धन का दु:ख होगा। यदि शरीर का कोई अंग खराब हो जाए तो यह तन का दु:ख है। परिवार में यदि कोई प्रिय गुजर जाए तो यह मन का दु:ख होगा, यदि परिवार के किसी सदस्य का मानसिक संतुलन खो जाए, तो यह बुद्धि का दु:ख होगा। और जिस दु:ख का आभास ही न हो कि वह किन कारणों से प्राप्त हो रहा है, उसे आध्यात्मिक दु:ख की संज्ञा दी जाती है। वैसे दु:ख के दो मुख्य प्रकार हमारे मनीषियों ने बताया है। पहला आहूत दु:ख, दूसरा अनाहूत दुःख। आइए इन पर विचार करें।

आहूत दु:ख मानव जनित अथवा स्वम सृजित होते हैं, जिन्हें मानव अप्रत्याशित सुख की चाह में स्वयं  आमंत्रित करता है। इस दु:ख में चाह, तृष्णा, लोभ, मोह, प्राप्ति, मद व प्रत्याशा में द्विगुणित अथवा बहुगुणित होते हैं।
 अनाहूत दु:ख वह दु:ख होता है, जो छल, छद्म, दुष्कृत्यों के परिणाम स्वरूप जीव के जन्म के साथ आते हैं, वे निर्धारित समयावधि कर्म का फल देने के पश्चात उनका पीड़ा जन्य स्वरूप क्षीण होकर नष्ट हो जाता है।
 मानव अप्रत्याशित सुखों और कामनाओं की चाह में संग्रह व भौतिक विस्तार को ही कुछ काल तक जीवन लक्ष्य व उपलब्धि मानने लगता है, फिर उसी स्वनिर्मित संसार में द्वेष, घृणा, वैमनस्य, हिंसा, क्रोध, कुंठा व नकारात्मक सोच उसे सताने लगते हैं तो वह दुखी होने लगता है।
 वास्तव के देखें तो हम पाते हैं कि सुख प्राप्ति की कामना सभी जीवधारियों की होती है, कोई दु:खी नहीं रहना चाहता।परंतु बिना कर्म व पुरुषार्थ के सुख की प्राप्ति नहीं की जा सकती।
जीवन को सुखी बनाने में चरित्र का बहुत महत्त्व होता है। सच्ची चरित्रता ही मानवता की प्रतीक है। चरित्र का बल मनोबल को बढ़ाता है।
तत्वदर्शियों ने यह माना है कि सच्चा सुख कुछ देने से मिलता है, न कि कुछ पाने से। सुख की सच्ची इमारत, प्रेम, दया, करुणा, त्याग, तप की नींव पर ही टिकी होती है।इंद्रिय जन्य सुख भी क्षणिक होता है।कुवासनाओं, वासनाओं एवम नीची प्रवित्तियों की संतुष्टि को सुख नही कहते।सुख दैविक वस्तु है।आत्मिक आनंद ही वास्तविक सुख माना जाता है। मानव आज भौतिक पदार्थों से संपन्नता, व संकलन में ही सुख समझता है, जब कि यह व्यामोह, मतिभ्रम, मायाजाल ही है।
सच्चा सुख पाने हेतु हम सभी को, स्वम से अधिक दूसरों को महत्व देना चाहिए।क्षमा का गुण धारण करना चाहिए। अपनी आत्मा के उत्थान से सच्चा सुख मिलेगा।सत्य बोलने, सत कर्म करने, अंतःकरण को पवित्र बनाने से, कटु वचन से विरत रहने से, मीठी वाणी बोलने, अपने विचारों को अधिक उदार, उन्नत बनाने से, मानसिक दरिद्रता के परित्याग से और संतोषी बनने से सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
संत जन कहते है कि जब हम साक्षी भाव से दु:खों को देखना शुरू करते हैं तो भयंकर से भयंकर दु:ख भी हमें विचलित नहीं करते।आध्यात्मिकता को धारण करने से जीवन में असीम सुख और शांति आने लगती है।
पात्र, देश, काल के अनुसार सुख बदलता रहता है, जैसे बचपन में एक बच्चे को माँ जैसी कोई प्यारी वस्तु दुनियां में दिखाई नहीं देती, वही जब बड़ा होता है, तो खिलौने से सुख प्राप्त ज्यादा करने लगता है और जब वह विवाहित हो जाता है तो अपनी पत्नी से अधिक सुख प्राप्त करने लगता है।
जैसा की उपर्युक्त विवेचन से हमें ज्ञात हुआ कि सुख पांच प्रकार के होते हैं। तन का सुख, मन का सुख, धन का सुख, बुद्धि का सुख, व आध्यात्मिक सुख। उक्त सुखों में आध्यात्मिक सुख ही शाश्वत सुख कहलाते हैं बकिया सभी सुख क्षणिक सुखों में परिकल्पित किए जाते हैं।


लेखक :- डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
             कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित
             वरिष्ठ साहित्यकार, सुंदरपुर वाराणसी

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