तीर्थ स्थल, पावनकारिणी शक्ति के केन्द्र व चेतना के सम्बर्धक : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

तीर्थ स्थल, पावनकारिणी शक्ति के केन्द्र व चेतना के सम्बर्धक : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
तीर्थ संस्कृत का शब्द है जिसका मतलब पार करने का स्थान, घाट  पाठ या व्यक्ति को संदर्भित करता है जो पवित्र है। तीर्थ,धार्मिक आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व के वे पवित्र स्थान होते हैं जहां जाने से लोगों में पवित्रता का संचार होता है।इसमें नदी सरोवर भूमि मन्दिर व स्थान विशेष होते हैं। जनश्रुति के अनुसार जहाँ जाने पर व्यक्ति के पाप अज्ञात रूप से विनष्ट होते हैं। तीर्थों में लोक चेतना के सूत्र अनादि काल से विद्यमान हैं। तीर्थ आध्यात्मिक चेतना के सम्बर्धक व सत्प्रेरक भी होते हैं।तीर्थ भारत के जनमानस के प्राण हैं।जहाँ पर जीवन रस की अमृतधारा सदियों से बहती आ रही है। इसीलिए तीर्थों का शाश्वत महत्व आज भी विद्यमान है।
तीर्थ का अर्थ -तारने वाला या भव सागर से पार उतारने वाला होता है।  “तारयितुम समर्थ: इति तीर्थ:” अर्थात् जो तार देने या पार कर देने में समर्थ है, वही तीर्थ है। तीर्थ नवीन चिंतन शक्ति के सम्प्रेरक भी होते हैं। ”तीर्थी कूर्वन्ति तीर्थानी, स्वान्तः स्थेन गदाभृता”
जिसका मतलब होता है कि जब ऋषि तीर्थ यात्रा करते हैं तो उनकी उपस्थिति से तीर्थ स्थानों की शोभा बढ़ जाती है। युधिष्ठिर विदुर जी से कहते हैं कि आप जैसे भक्त स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान के द्वारा तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।पद्मपुराण में वर्णित है-
तसमात् तीर्थेशु गन्तव्य:, नर संसार भीरुभि:।
पुण्योदकेशु सततम, साधु श्रेणी विराजेषु।।
स्कन्द पुराण में सप्त तीर्थों की चर्चा की गई है। जिसमें सत्य, क्षमा, इन्द्रिय संयम, दया, प्रिय वचन, ज्ञान, आता है। जिसे मानस तीर्थ भी कहते हैं। यदि हम सभी चिंतन करें तो पायेंगे कि अपने मन की शुद्धि ही परम तीर्थ कहलाती है।कई मनीषी तो यह भी कहते हैं कि जिन व्यक्तियों का हृदय पवित्र होता है वे स्वयं में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होते हैं।सारे तीर्थ ऐसे व्यक्तियों में स्वय विराजते हैं।इसी कारण से कहते हैं कि जहाँ सन्त महात्मा रहते हैं वही भूमि तीर्थ स्थल व तपोभूभि हो जाती है।सन्तों की जन्म भूभि,साधना स्थल एवं निर्वाण भूभि भी तीर्थ स्थलों में तब्दील हो जाती है और ऐसे स्थलों पर दिव्य गुणों का प्रवाह होता रहता है।चूँकि सन्त महात्मा महापुरुष भगवदीय गुणों से संपन्न होते हैं।अतः उन्हें परम तीर्थ की संज्ञा दी जाती है।इसे चेतन तीर्थ एवम् गुरु तीर्थ भी कह कर पुकारा जाता है।
सन्त महात्मा जहाँ पर रहकर साधना करते हैं तो वहाँ पर वे ब्रह्मांडीय ऊर्जा व दिव्य शक्तियों का अर्जन कर उसे वे उस स्थान विशेष के वातावरण में प्रसारित करते हैं,जिससे वह स्थान पवित्र व वहाँ के वृक्ष आदि भी दिव्य गुणों को समाहित कर लेते हैं।फलस्वरूप वहाँ दिव्यता का बोध होने लगता है,और लोग वहाँ पर आने जाने लगते हैं।उदाहरण के लिए भगवान बुद्ध ने जिस वृक्ष के नीचे रहकर साधना की उसे बोध वृक्ष का नाम दिया गया है।आज वह स्थान पवित्र तीर्थ स्थल हो चुका है।साईं बाबा जिस नीम के वृक्ष के नीचे रहकर तपस्या की वह मीठी नीम के रूप में विख्यात हुआ।आज वहाँ भी दूर दूर से लोग दर्शनार्थ जाते हैं।महावीर स्वामी जहाँ साधनारत रहे ,वहाँ का वातावरण अहिंसक हो गया था।देश में आज भी कई ऐसे दिव्य स्थल हैं जहाँ सन्तों की साधना स्थल,तपोभूमि में बदल कर तीर्थ स्थल हो गये हैं।जहाँ के वृक्ष नदी झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओतप्रोत हो गये हैं।कारण यही है कि इन स्थानों पर आने से हम सभी का तन मन दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है।इन स्थानों पर जाने से हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है।मित्रों यही कारण है कि हम पवित्र तीर्थ स्थलों की मिट्टी अपने साथ घर लाते हैं।
अब आइए तीर्थ यात्रा को समझें।”याति त्राति रक्षतीति यात्रा” अर्थात् जो रक्षा पूर्वक अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक हो उसे यात्रा कहते है।जिस यात्रा में धर्म,काम,मोक्ष की प्राप्ति संभव हो उसे हम तीर्थ यात्रा कहते हैं।यदि सच्चे मन से आत्म कल्याण की भावना से तीर्थ यात्रा की जाय और धर्मानुकूल आचरण किया जाये तो उस यात्रा काल में एक अजीब तरह की मानसिक ऊर्जा की अनुभूति होती है, जिससे व्यक्ति निष्काम भावना से ईश्वर की आराधना के लिए प्रेरित होता है,जो उसके आध्यात्मिक विकास व कल्याण में सहायक बनती है।
तीर्थ यात्रा उन्हीं लोगों की सफल होती है जो उसे पवित्रता के साथ पूरा करते है।यात्रा के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।क्रोध से दूर रहते हैं।असत्य नहीं बोलते।कटु वचन नहीं कहते।सत्याचरण का पालन करते हैं।यात्रा के दौरान संतोष भी रखना चाहिए।कोई यदि आप का अपमान करे तो उसे सह लेना चाहिए।अपनी इन्द्रियों को प्रतिकूल विषयों से हटाकर अनुकूल विषयों में लगायें रखना चाहिए।तीर्थ स्थान पर जाने के दिन,उपवास रखने से शरीर की शुद्धि होती है।तीर्थ यात्रा के दौरान सन्त महात्माओं के दर्शन से मन निर्मल हो जाता है।अतः सन्त महात्माओं का दर्शन तीर्थ यात्रा के दौरान अवश्य करना चाहिए।तीर्थ यात्रा के दौरान सूर्य चंद्रमा पृथ्वी जल वायु आकाश की उपासना का भी विधान होता है।अतः पंच महाभूतों की भी आराधना फल दायी होती है।
तीर्थों के प्रकार में पहला नित्य तीर्थ कहलाता है।गंगा यमुना गोदावरी कावेरी काशी दर्शन,मानसरोवर यात्रा इन्हें नित्य तीर्थ की श्रेणी में रखा जाता है।इन तीर्थों में दिव्य पावनकारिणी शक्ति अनादि काल से रही है ऐसा लोग वर्षों से मानते आये हैं।
दूसरा भगवदीय तीर्थ,जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सन्त महात्मा महापुरुष भगवदीय गुणों से सम्पन्न होते हैं इसलिए उन्हें भगवदीय तीर्थ कहा जाता है।जिस स्थान पर कोई महापुरुष या भगवान अवतार लिए हैं वे स्थान विशेष भी भगवदीय तीर्थ कहे जाते हैं।उदाहरण के लिए अयोध्या,मथुरा ,रामेश्वरम आदि को भगवदीय तीर्थ कहते हैं।
वैसे विचार करें तो हम समझ पायेंगे कि पत्नी के लिये उसका पति,बच्चों के लिए उसके माता पिता एवम् शिक्षार्थियों के लिये उनके गुरु ही तीर्थ होते हैं।
तीर्थों का धार्मिक सामाजिक आर्थिक महत्व भी होता है।तीर्थ यात्रा से हम विभिन्न राज्यों के रहन सहन भाषा शैली उपासना पद्धति वेष भूषा विचार व्यवहार की जानकारी प्राप्त करते हैं।तीर्थ यात्रा लोगों को परस्पर सद्भाव के माध्यम से एक सूत्र में बाधते हुए सम्पूर्ण राष्ट्र को बसुद्धैव कुटुम्बकम् का पुनीत संदेश देते हैं।तीर्थ स्थानों से राज्यों की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ती है। इसीलिए राज्य सरकारें पर्यटन टूरिज्म को आज खूब बढ़ावा दे रही हैं जिसमें तीर्थ स्थानों के विकास में भी आशातित सफलता मिल रही है।

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