आसान नहीं अब शहर रहना

आसान नहीं अब शहर रहना 

महँगाई का यारों क्या कहना। 
आसान नहीं अब शहर रहना।। 

बड़ा मुश्किल लगता खुद का सदन होना। 
रोटी,दाल चलाना ही बहुत वजन ढोना।। 
रह जाएगा शायद अपने घर का सपना। 
आसान नहीं अब शहर रहना।। 

महँगाई देख-देख दिल घबराए। 
बेरोज़गार व्यक्ति घर कैसे चलाए।। 
अधूरा ही रह जाए न कहीं सारा ख्वाब अपना। 
आसान नहीं अब शहर रहना।। 

उच्च शिक्षा बच्चों को दिलाना बड़ा मुश्किल। 
अब लगता उनको जिलाना -खिलाना बड़ा मुश्किल।। 
बिक जाएगा पत्नी का सब अनमोल गहना। 
आसान नहीं अब शहर रहना।। 

खाद्यान्न,सब्जियों के भाव छू रहे आसमान। 
किसी निर्धन का गुज़ारा कैसे हो भगवान।। 
अगले जनम सभी को धनवान ही करना। 
आसान नहीं अब शहर रहना।। 

- कवि चंद्रकांत पांडेय, 
मुंबई / महाराष्ट्र, 

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