छाँव की तलाश

छाँव की तलाश 
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भगवान भाष्कर  की  तीव्र किरणें, 
इन  दिनों धरती को जला  रही हैं । 
पशु , पक्षी ,पादप , वृक्ष मनुज को , 
गर्मी    से   पागल   बना   रही  हैं । 

जलती    धरती  तवा   के   जैसी  , 
पानी जैसे बदन से निकले पसीना । 
तेज धूप  से व्याकुल  पथिक सब  , 
घने  पेड़ की  छाया में  चाहे जीना । 

दूर -  दूर   तक  सड़कों   पर  भी  , 
पहले  से   वृक्ष  न   पड़ें   दिखाई । 
गर्मी  अब  बेतहासा   बढ़  चली है , 
पुराने  पेड़ों  की याद सबको आई । 

संतुलन   प्रकृति  का खुद  सभी ने , 
अपने ही हाथों जानकर बिगाड़ा है । 
कुदरत   कहर  अपना बरपा रही है ,
मानव की कमियों ने उसे पछाड़ा है। 

आने वाली  अपनी  पीढी़  को  हम , 
ऐसी  वीरान   धरती  ही  देंगे  क्या ? 
खुद   तो  मुशीबत  में  घिर   गए  हैं , 
हरी पृथ्वी  दे अहशान न  लेंगे  क्या? 

अंकुश   लगाएं   वृक्ष   काटने   पर  , 
वृक्षारोपण  की हो चहुँ ओर भरमार । 
व्यक्तिगत , संस्थागत हर प्रकार  से  , 
दिल  खोल  कर मदद करे  सरकार । 

- चंद्रकांत पांडेय, 
मुंबई  / महाराष्ट्र

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