भ्रष्टाचार की अग्नि : डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

 भ्रष्टाचार की अग्नि
रचनाकार -डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"
भ्रष्टाचार की अग्नि में,
 न्याय व्यवस्था शर्मसार है।
कोने में  सिसक रहा, न्याय,
फाइलों में बंद रोता,
 सत्य हाय हाय ।
 न्याय बैठा लाचार है।
रिश्वत लेना जरूरी नहीं, मजबूरी है इनकी,
आदत बन गई है, रिश्वत लेना जिंदगी इनकी।
सत्यता को घोल चाय के गिलास में,
चुस्कियां लेते हैं, न्याय की।
सत्यता का बना के तमाशा,
मनोरंजन करते, साहब जी।
भ्रष्टाचार की अग्नि में,
सहने वाला और करने वाला दोनों जलते हैं।
बन के गांधी अहिंसा का डंडा लेकर,
कुछ सिद्धांतवादी चलते हैं।
लोकतंत्र कोई मजाक नहीं,
कानून व्यवस्था किसी की जागीर नहीं।
न्याय बैठा है, बस एक पल के इंतजार में।
एक हिम्मती किरदार और उसके विश्वास में।

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