द्रुतगामी मन, बंधन व मोक्ष का कारण : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा

द्रुतगामी मन, बंधन व मोक्ष का कारण : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
कहते हैं कि, मन विधाता की अनुपम देन है। चंचलता और स्वच्छंदता मन की नैसर्गिक विशेषता होती है। मानव जीवन के तीन आयामों में शरीर, प्राण व मन की गणना की जाती है। मानव की सबसे बड़ी शक्ति मन को माना जाता है। मन ही मानव को विचारशील बनाता है। शरीर रचना विज्ञानियों का मानना है कि मानव शरीर में लगभग 1300 ग्राम का मस्तिष्क होता है, जिसमें मन विद्यमान रहता है। एक शोध के अनुसार मानव मस्तिष्क में तीस अरब न्यूरॉन्स होते हैं, जिससे शरीर में सूचनाओं का आदान- प्रदान होता रहता है। मानसिक तरंगों की अनुभूतियों, मस्तिष्क की स्मृतियों से आत्मा में कामनाओं का एक जगत का निर्माण होता है, जिसे मन कहा जाता है। मन में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति का मन ही उसका संसार है। मन का अस्तित्व कामनाओं पर निर्भर रहता है। कामना के न रहने पर मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने निष्काम कर्म की बात बताई है। आइए मन को मनीषियों ने कैसे परिभाषित किया है, इस पर ध्यान केंद्रित करें।
मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं कि जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि भाव, इंद्रिय ग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान इत्यादि में सक्षम बनाती है।
सामान्य भाषा में  मन शरीर का वह हिस्सा या प्रक्रिया है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने और समझने का कार्य करता है। मनोवैज्ञिकों ने इसके दो प्रमुख भाग, चेतन और अवचेतन मन बताया है।
तत्वज्ञानियों ने स्पष्ट किया है कि मन की कोई वास्तविक रूप में सत्ता नही होती। यह मानसिक तरंगों, मस्तिष्क व आत्मा की इच्छा से बनने वाला एक काल्पनिक संसार है, जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है। मानव मस्तिष्क में 1/2 कंपन प्रति सेकंड से लेकर 85 कंपन प्रति सेकंड तक की तरंगें निकलती हैं, जिसे अल्फा, बीटा, डेल्टा थीटा के नाम से जाना जाता है।मन पानी से भी पतला, धुएं से भी अधिक झीना और हवा से भी तेज गति से चलता है।
यजुर्वेद में कहा गया है, कि मेरा मन शिव संकल्प परायण हो और अच्छे विचारों को धारण करने वाला हो, इसीलिए कहते है कि मन से ही व्यक्ति, नर से नारायण व पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की क्षमता पाता है।मन की चंचलता को संयम से नियंत्रित किया जा सकता है। स्वाध्याय और सत्संग से भी मन को नियंत्रित करने में सफलता मिलती है। आचार्य तुलसी ने राम चरित मानस में लिखा है,
कर विचार देखहूँ मन माही। हरि प्रसाद कुछ दुर्लभ नाही।।
वर्तमान परिवेश में मानव समाज के दु:खों का कारण मन की वृत्तियों पर अनियंत्रण ही है। व्यक्ति के पास मन तो है, परंतु वह मनन नही करता। मन की वृत्तियां ही क्लेश, दु:ख और अशांति का द्वार खोलती हैं। यदि मन को सकारात्मक दिशा में लगाया जाए तो परम सत्य का अनुगामी बना जा सकता है। सभी सापेक्ष विचार मन में ही पैदा होते हैं, और यह मन ही संवेदनाओं का अग्रगामी  है। इस भौतिक विश्व में मन ही समस्त तत्वों में सूक्ष्म है। समस्त विषय और चेतना मन में ही उत्पन्न होते हैं, यदि कोई मनुष्य साफ मन से बोलता और काम करता है, तो आनंद छाया के समान उसका अनुसरण करता है। आप इस मन में अपने विचारों, इच्छाओं, कल्पनाओं, अनुभवों, संकल्पों के जितने और जैसे रंग डालते जायेंगें वह वैसा ही बनाता जायेगा। मन वायु तत्व की तरह लगातार प्रवाहित होने वाला है।
मन जब सत्य, संयम, दृढ़ता पवित्रता तथा शिव संकल्पों से युक्त होता है तभी मानव मनीषी धीर पुरुषों का व्यक्तित्व प्राप्त करता है। मन जितना निर्मल होता है, संकल्प उतना ही दूरगामी अनंत और असीम होते हैं। संकल्प में शक्ति व शुचिता आ जाती है, इसी संकल्प शक्ति के बल पर अनेक महान कार्य संपन्न होते हैं। शांत मन की ऊर्जा समस्त ऊर्जाओं के केंद्र हृदय की ओर लौटती है, तब वह अपने को हल्का, संत्रास, कुंठा, पीड़ा के अभाव से मुक्त ही नहीं वरन अपने को शक्ति संपन्न अनुभव करता है।मन  के परिष्कार के लिए  इंद्रिय संयम, संतों का सानिध्य, विवेक व पंच विकारों जैसे काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह से बचकर सद गुणों का समावेश किया जा सकता है। मन का मूल स्वभाव समता, प्रेम, दया, करुणा, ममता उदारता है।
बुद्धि मन से बलवान होती है, बुद्धि से परे आत्मा है। मन का दोष मलीनता, चंचलता व स्वतंत्रता होती है मन के कारण सभी ऐश्वर्यवान दुखी होते हैं, क्योंकि स्वार्थ, लोभ, छल, दंभ, ईर्ष्या और कुटिलता के चलते हम मन की अतल गहराइयों में घृणा के असंख्य बीज बोते  रहते हैं, जब ये बीज भीतर भीतर पल्लवित, पुष्पित होते हैं, तो उसकी अनेक शाखाएं प्रशाखाएं हृदय के तंतुओं में फैलती जाती है, तब घृणा व द्वेष के अनेक पौधे उगने लगते हैं और हम कलुषित आचरण करने लगते हैं, फलस्वरूप व्यक्तित्व खराब होने लगता है।
विचार द्वारा ही मन की निर्मिति होती है, मत विचार का निर्णय रूप है।चिंतन की भिन्नता को ही मतभेद कहा जाता है। मतभेद व मनभेद में मूल अंतर को समझने की आवश्यकता है।हमारे मत में भेद भले हो, परंतु मन में भेद नहीं होने चाहिए।
कहते है, कि" चंद्रमा मनसो जातः "अर्थात चंद्रमा मन को चंचल बनाता है। मन सभी इंद्रियों की गतिविधियों पर नजर रखता है। मन ही घृणा को प्रेम में बदलता है, क्रोध को क्षमा में, व हिंसा को अहिंसा में बदलता है।
समस्त जीवधारियों में मानव देहधारी की श्रेष्ठता  प्रभु प्रदत्त वरदानों में मानव मन की सर्वोत्तमता सर्वमान्य है।कुछ संतों ने मन को ग्यारहवीं इंद्रिय की संज्ञा दी है। कहते भी हैं, मन के हारे, हार है। मन के जीते जीत।।
अध्यात्म में मन को संयमित रखने पर बल दिया जाता है, जिससे मन अनावश्यक बंधनों में न फसे।योगी संत महात्माओं ने मन पर विजय पाकर अनेक सिद्धियों को प्राप्त
किया है और सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाई है।

          लेखक, पूर्व जिला विकास अधिकारी, मोटिवेशनल 
स्पीकर, कई राज्य स्तरीय सम्मानों से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार, आल इंडिया रेडियो के नियमित वार्ताकार, कई पुस्तकों के सृजन कर्ता, शिक्षाविद् , राज्य चुनाव प्रशिक्षक, अखिल भारतीय विश्वकर्मा ट्रस्ट वाराणसी के मुख्य मार्ग दर्शक

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