दान देने से खुलता है, आय का अतिरिक्त द्वार

दान देने से खुलता है, आय का अतिरिक्त द्वार
        डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा कहते हैं, "यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनिषणाम् " दान का मतलब देने का भाव, कुछ अर्पण करने की निष्काम भावना, परंतु जो कुछ दान दिया उसमे ईमानदारी, त्याग, परिश्रम, तप, निष्ठा, विवेक, श्रम व न्याय का कितना अंश है, झूठ बोलकर, ठगी करके, अनाप- शनाप ढंग से कमा कर, दूसरों का छीनकर, पाप जन्य कमाई से दान पुण्य किया तो क्या किया।अनीतिपूर्वक अमर्यादित ढंग से, धन कमाकर, सरकार को चुना लगाकर, किसी गरीब को सता कर, किसी का हक हुकूक मारकर किसी की भावनाओं का लहू सुखाकर दान पुण्य किया तो उसका फल तुम्हें नहीं बल्कि उनको नसीब होता है, जिनका धन छीना जाता है।
एक उदाहरण समझें, यदि मैं एक अधिकारी हूं और अनीति से पांच लाख कमाकर, उसमें से दो लाख का कंबल वितरित कर दूं, और आशा रखूं की मेरा कल्याण होगा। मित्रों ऐसी कमाई का दान करने से किसी भी व्यक्ति के जीवन में सुख की एक भी फूंगी फूटने वाली नही है।
जरा विचार करें वह दान, कैसा दान जिसमें भाव, कर्म, तप, श्रद्धा, विवेक, श्रम व अपनत्व के स्तर पर आप का कुछ नही है, तो उस चीज का, धन का कैसा दान? दान उस चीज का करें, जिसमें सब कुछ आप का हो।परिश्रम, कर्म, नियत, व पवित्रता, ऐसे ही 10 रुपए का दान भी लाखों रुपए से बढ़कर है, जो आनंददायक व शांतिप्रदायक
होगा।
परासर स्मृति में वर्णित है कि जरूरतमंद के पास जाकर देना उत्तम दान, बुलाकर देना मध्यम दान, मांगने पर देना अधम दान और सेवा कराकर देना तो सर्वथा निष्फल एवम व्यर्थ दान होता है।

प्रार्थना के लिए सौ बार हाथ जोड़ने के बजाय दान के लिए एक बार हाथ खोलना अधिक महत्त्व पूर्ण है।जिस प्रकार पुष्प इक्कठा करने वाले के हाथों में कुछ सुगंध हमेशा के लिए रह जाती है, उसी प्रकार दान देने से भी दानदाता के जीवन में पुण्य का वास बना रहता है। जो लोग दूसरों की जिंदगी रोशन करते हैं, उनकी जिंदगी खुद रोशन हो जाती है। धन की अधिकता से कुछ व्यक्ति प्रसन्नता नही महसूस करते बल्कि अपना धन दूसरों पर खर्च करके ज्यादा आनंद महसूस करते हैं । दान की गई धनराशि चाहे थोड़ी ही क्यों न हो वह व्यक्ति को प्रसन्न करती है। दान श्रद्धा, प्रेम, सहानुभूति एवम् नम्रतापूर्वक करना चाहिए। कुड़कर, जलकर, खीजकर दान नहीं करना चाहिए। दान हमेशा अपने अहम को विसर्जित करते हुए करना चाहिए, अन्यथा वह पुण्यदायी व फलदायी नही होता है।
मन में लाभ का महत्वाकांक्षा रखकर दान देना निरर्थक होता है। इस प्रकार का दान भी बेकार दान समझा जाता है, जो अपमान करके बिलंब से, मुख फेरकर, कठोर वचन बोलकर और दान देकर पश्चाताप करते हुए दिया जाता है।
मत्स्य पुराण में वर्णित है कि दान परायण व्यक्ति भूलोक को ही नही वश में करता बल्कि देवलोक को भी जीत लेता है। दान की सार्थकता नि:स्वार्थ भाव से किए जाने में है।
दान के दो हेतु हैं, श्रद्धा और शक्ति माना जाता है। दान के छह अधिष्ठान है, धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय। दान के छह अंग होते हैं जो दाता, प्रतिग्रहिता, शुद्धि, धर्म युक्त देय वस्तु, देश व काल बताए गए हैं। दान के दो फल हमारे मनीषियों ने इंगित किया है, परलोक के लिए और इहलोक के कल्याण हेतु। दान दाता का कुल, विद्या, आचार और जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध व सात्विक होनी चाहिए, इसे यदि दाता कुछ देता है तो प्रकृति उसकी भरपाई पूरी करती है।
दान के चार प्रकारों का वर्णन हमारे आर्ष ऋषियों ने किया है।
ध्रुव दान , कुंआ बनवाना, बगीचे लगवाना, पोखर खुदवाना यह ध्रुव दान के अंतर्गत आता है।जो दान नित्य प्रति दिया जाता है वह त्रिक दान कहलाता है। संतान प्राप्ति, विजय, ऐश्वर्य, स्त्री, बल, इच्छापूर्ति के लिए जो दान किया जाता है उसे काम्य दान कहते हैं।
नैमित्तिक दान की तीन श्रेणियां होती है। कालाक्षेप, क्रियाक्षेप, गुणा क्षेप ।
ग्रहण व संक्रांति काल की अपेक्षा से जो दान किया जाता है उसे कालाक्षैप, श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान दिया जाता है उसे क्रियाक्षेप और जो संस्कार और विद्याध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रखकर दान दिया जाता है उसे गुणाक्षेप  दान कहते हैं ।
आठ वस्तुओं का दान उत्तम दान की श्रेणी में आता है। गृह,मंदिर महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और स्वर्ण।
मध्यम दान, अन्न, बगीचा, वस्त्र, अश्व आदि वाहन इस श्रेणी में आते हैं।
कनिष्ठ दान, जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ, पत्थर इस श्रेणी में आता है।
दान का थोड़ा होना या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता अपितु श्रद्धा और शक्ति ही दान की वृद्धि व क्षय का कारण होती है। श्रद्धा से ही धर्म का साधन किया जा सकता है। शक्ति के बारे में कहा गया है जो कुटुंब के भरण पोषण से अधिक हो वही धन दान देने के योग्य है, वह मधु के समान पुण्य करने वाला होता है। अपने आत्मीय जनों को दु:ख देकर दान करने वाला विष पान के समान होता है।
दान के संदर्भ में कुछ अन्य तथ्य, जो वस्तु तुच्छ हो और सर्व साधारण के लिए उपलब्ध हो वह सामान्य वस्तु होती है।कही से मांग कर लायी गई वस्तु याचित कहलाती है। जो वस्तु किसी के पास रखी गई है वह दूसरे की हो धरोहर कहलाती है, इसको न्यास भी कहते हैं। दी हुई वस्तु दान के नाम से जानी जाती है इसे दान धन भी कहते हैं। यदि एक वस्तु किसी के यहां रखी हो और वो किसी और को दे दी जाए वह अनवाहित कहलाती है। जिस धन को किसी के विश्वास पर छोड़ दिया जाए उस धन को निक्षिप्त धन कहते हैं। वंशजों के रहते हुए सब कुछ देना सर्वस्व दान कहलाता है। बंधक रखी वस्तु को आधि कहते हैं।
अतः उक्त विवेचन से हम सभी ने दान के समस्त पहलुओं को समझा है। तो आइए! दान देकर लोगों का कल्याण करें, स्वयं
पुण्य के भागी बनें और लोगों को भी उपकृत करें।
             
लेखक : डॉ दयाराम विश्वकर्मा, 
पूर्व जिला विकास अधिकारी
                                            सुंदरपुर, वाराणसी

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