श्रेष्ठतम उत्तकृष्ठताओं से परिपूर्ण एवं चेतना का व्याख्याकार है, आत्मा : डॉक्टर दयाराम विश्वकर्मा

श्रेष्ठतम उत्तकृष्ठताओं से परिपूर्ण एवं चेतना का व्याख्याकार है, आत्मा : डॉक्टर दयाराम विश्वकर्मा 
  "मैं हूँ " यह बोध ही हमे आत्मवान बनाता है। आत्मा को जानो। 
"आत्मानम् विद्धि" सनातन धर्म के अनुसार छोटे जीवाणु से लेकर बड़े स्तनपाइयों में आत्माएं विद्यमान होती हैं।आत्मा से अभिप्राय हमारे स्वैच्छिक एकांतिक चिंतन में फलित जीवन मृत्यु संबंधित गूढ़ रहस्यों, अनुभवों से है।भारतीय दार्शनिक इसे आत्मा, यूनानी इसे मानस और रोमन इसे एनिमा और मुस्लिम दार्शनिक इसे रोमानीकृत नफ्स और रोमानिकृत रूह मानते है।
आत्मा वैसे वह तेज पुंज है, जिसका विनाश मृत्यु पश्चात भी नही होता,वह प्राणियों में मूलभूत सत है, जो शाश्वत है।धार्मिक दार्शनिक और पौराणिक मान्यताओं में आत्मा एक जीवित प्राणी का निराकार सार है।
कुछ मनीषियों का विचार है, कि आत्मा ही मन को शक्ति देता है,तभी मन विचार उत्पन्न करता है, तभी तो यह शरीर और प्रकृति है।आत्मा नही तो कुछ भी नहीं। मन विचारों का समूह है, शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये मन की इंद्रियां हैं और आकाश, वायु, जल, पावक, भूमि से बना शरीर इसका निराकार रूप।
परंतु विज्ञान आत्मा के सिद्धांत को नहीं मानता। क्वांटम फिजिक्स के अनुसार आत्मा ऊर्जा का एक रूप है। विज्ञान का कहना है कि प्रत्येक पदार्थ इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान व      पाजिट्रान से ही निर्मित है। आत्मा विज्ञान यंत्रों से परे है, ऊर्जा पथार्थ के साथ एकाकार है, पूरा पदार्थ ही ऊर्जा है। आत्मा को इससे परे माना जाता है।
मन जब विचार विहीन हो जाता है, शांत चित्त हो जाता है, तभी हमे आत्मा की आवाज सुनाई देती है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि, कोई भी अस्त्र उसे विनष्ट नही कर सकता, अग्नि उसे जला नही सकती, पानी उसे गीला नही कर सकता, जिस प्रकार व्यक्ति पुराने कपड़ों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर का परित्याग कर नए जीव में, नए शरीर में प्रवेश करती है।
हमारे आर्ष ऋषियों ने इसे अजर, अमर, अविनाशी, अभेद्य, अप्रवेशित,निर्विघ्न, अहानिकार, अछूता, सर्वव्यापी, स्थिर, सुनिश्चित, अदृश्य, अवर्णनिय, शब्द और विचार से अप्राप्य, सर्वदा स्वम माना है।
आत्मा का भोजन स्वाध्याय को माना जाता है। स्वाध्याय हमारे चिंतन में सही विचारों का समावेश करके चरित्र निर्माण में सहायक बनता है।ईश्वर प्राप्ति की ओर हमे अग्रसर करता है।आत्म परिष्कार का अमोघ उपाय स्वाध्याय व सत्संग ही बताया गया है। आत्म उत्थान के लिए स्वाध्याय अतीव आवश्यक होता है, 
इसमें सदसहित्य, वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, आर्ष ग्रंथ तथा महापुरुषों के जीवन वृतांत केअध्ययन को सद साहित्य कहते  हैं, जिससे सबके प्रति सद्भाव, श्रेष्ठ संकल्पों का उदय तथा आत्मा को शांति का अनुभव के साथ, शंका, आशंकाओं का समाधान भी होता हो।
आत्मा की कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जिनकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होता है। एक विशेष प्रवृत्ति वाली जीवात्मा "योग्यम योग्येन युज्यते" के नियम से उस शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट होने के लिए सबसे उपयुक्त हो।।
आत्मा एक चैतन्य शक्ति है, इसकी मुख्य तीन शक्तियां बताई गई हैं, मन, बुद्धि, संस्कार। विचार करने की शक्ति को मन, निर्णय करने, या लेने की शक्ति को बुद्धि, कर्म का प्रभाव स्मृति पर पड़ता है, उसे संस्कार कहते हैं। जैसा विचार वैसा चित्त, चित्त से ही वृत्ति बनती है, इसी के आधार से दृष्टिकोण बनता है,और दृष्टिकोण के अनुसार कर्म और व्यवहार होता है। कर्म के अनुसार ही हमारे अच्छे, बुरे संस्कार पड़ते हैं।
आत्मा के सात गुणों की चर्चा हमारे मनीषियों ने किया है।ज्ञान, पवित्रता, शांति, प्रेम, सुख, आनंद व शक्ति यह सात भौतिक गुण होते हैं, इसी लिए इसे सतोगुणी कहते हैं, जो मृत्यु को प्राप्त होकर नष्ट होता है वह शरीर है, आत्मा नही। आत्मा तो दिव्य गुणों से विभूषित है। त्याग, तपस्या, परसेवा, परोपकार में लगे कर्म से आत्मा को संबल मिलता है।आत्म हनन नहीं करना चाहिए, यानि हमे अपनी आत्मा की आवाज को अवश्य सुनना चाहिए।ईशोपनिषद में वर्णित है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा का हनन करता है वह प्रकाशहीन होकर अंधकार से युक्त होकर नीच लोकों को प्राप्त करता है।
अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिसके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी व दुःखी हुआ करता है और वे कारण हैं, उसके पुर्वानुष्ठित कर्म।इसी कारण हमे सदैव शुभ कर्मों में अपने को लगाए रखना चाहिए।
कहते भी हैं कि, अवश्यमेव भोक्तव्यम कृत कर्म शुभाशुभम्।

लेखक- डॉ दयाराम विश्वकर्मा 
                             पूर्व जिला विकास अधिकारी, सुंदरपुर
                                   वाराणसी।

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