पितृ पीर को समझ न पाया

पितृ पीर को समझ न पाया 
आज पिता को तर्पण करते याद आ रही कर्मों की
जब तक जीवित रहे भूलकर पानी भी है नहीं पिलाया।।
रहा पड़ा परदेश कमाता बच्चों बीच उन्हें बिसराया,
अन्तिम समय पुकारे हमको पर हमने न मुंह दिखलाया।
लोग बताते मृत्यु पूर्व तक नीर नयन से रहा निकल,
लाल देखने को मन उनका कितना होगा रहा विकल।
मैं माया की चकाचौंध में पितृ पीर को समझ न पाया ।। जब तक.....
जब तक रहते मात पिता न कोई मूल्य समझ पाता,
जाने पर हर कोई उनके धुनता सिर मन पछताता।

याद आती हैं सारी बातें कैसे पाला है उनको,
खुद के सारे खर्च बंद कर विद्यालय डाला उनको।
मां अँचार से रोटी खाती बिन घी कभी न उसे खिलाया।। जब.......
आने पर बुखार सिरहाने बैठ बिताती रातें मां,
पापा लाते दौड़ दवाई सारा काम छोड़कर जा।
जिसकी जिद हम बच्चे करते निश्चित सायं आ जाती,
बिना सामने बैठ खिलाये मम्मी कहीं नहीं जाती ।
कहते पापा तुम सब ही धन है कुर्बां तुम पर माया।। जब.........
यह कविता उन सब की खातिर जो पितु मात सताते हैं,
उनकी अनदेखी करके घर दिल को रोज दुखाते हैं।
जब तक सिर पर इनका छाता दुख आने से डरता है,
धिक् धिक् रहते बेटों के जब घर पितु मात कल्हरता हैं।
यदि घर वृद्ध जाँय मिल हँसते समझो है सुख की छाया।। जब....

- डाॅ0 रामसमुझ मिश्र अकेला

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