राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान् बुद्ध तक का सफ़र

राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान् बुद्ध तक का सफ़र
एक बड़े आलीशान महल के राजकुमार सिद्धार्थ जो बचपन में बहुत ही विनम्र व दयालु प्रवृत्ति के थे, आप यूं कह सकते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के ही साक्षात् रूप थे। क्योंकि, उनकी शालीनता एकदम शांत शीतल नीर की भांति प्रतीत होती थी एवं भगवान श्रीराम की तरह आदर्शवादी थे। बचपन में उन्होंने एक तड़पते व घायल हंस को शरणागत दी एवं उस घायल हंस के सेवा-सुश्रुषा में कोई कटौती नहीं छोड़ी। इनकी सेवा-सुश्रुषा से फलीभूत होकर उस हंस को एक नयी ज़िंदगी मिली। 

समय का दौर शनै:-शनै: व्यतीत होता गया एवं बालक सिद्धार्थ का भी यौवनारंभ होने लगी। वे किशोरावस्था की उम्र की दहलीज़ों को जब पार किया तो बालक सिद्धार्थ के माता-पिता उनके लिए एक सुंदर व सुसंस्कारी वधु की तलाश में भटकने लगे और आख़िरकार एक अमुक नगर में एक चांद-सा मुखड़ा की तरह एक ख़ूबसूरत वधु मिल ही गयी जो साक्षात् किसी स्वर्ग लोक की परी की तरह दिखती थीं। दोनों परिवारों की स्वीकृति से दोनों वर-वधु परिणय सूत्र में एवं दाम्पत्य जीवन में बंध गये एवं सात जन्मों तक अग्नि देवता के सन्मुख साक्षात् मानकर एक साथ जीने-मरने की कसमें खायीं। कुछ वर्षों तक आनंद के सागर में व्यतीत हुआ एवं परम पिता परमेश्वर की असीम कृपा से एक सुंदर ओजस्वी बालक का वसुंधरा लोक पर अवतरण हुआ। उस बालक का ललाट ऐसे मानो कि सूर्य के ओज की भांति निखर रहा हो। सारे नगर में खुशियों की बरसात होने लगी एवं वहां के प्रजा फूलों नहीं समा रहे थे एवं लोग इस ओजस्वी बालक को पाकर धन्य-धन्य हो गये।

प्रकृति की ज़रा कुछ विडंबना को देखा जाए और समझा जाए। जो सिद्धार्थ नामक राजकुमार स्वयं सूर्य की तरह ओजस्वी हों एवं उनकी ख़ूबसूरत भार्या जो चांदनी की तरह शीतलता प्रदान करें एवं सारे ऐश्वर्य सुखों से फलीभूत होकर आनंद के सागर में डूबा हुआ हो। सहसा एक दिन न जाने सिद्धार्थ का मन ख़ूबसूरत भार्या के आसक्ति को छोड़कर अचानक कैसे विरक्ति की तरफ़ तब्दील हो गयी, न जाने आख़िर ये कैसे हुआ? जिसके बारे में कुछ कल्पना नहीं की जा सकती थी। 

एक दिन सिद्धार्थ चांदनी रातों की मधुर बेला में अपनी ख़ूबसूरत भार्या एवं बच्चे के संग अपने शयन-कक्ष में आराम फरमा रहे थे एवं उनकी अर्धांगिनी एवं बच्चे सुसुप्ता-अवस्था में विराजमान थे, बस ठीक उसी समय सिद्धार्थ अपनी भार्या एवं बच्चे को सुसुप्ता-अवस्था में त्यागकर अपने आलिशान महल से हमेशा के लिए रवाना हो गये एवं शांति की तलाश में चल बसे।

मेरे रूह और ज़हन में हमेशा एक प्रश्न-चिह्न बारंबार उपजता है कि जो पुरुष अपनी भार्या एवं बच्चे को सुसुप्ता-अवस्था व रूग्ण- अवस्था में त्यागकर शांति की तलाश में भटके, आख़िर ये कहां से अनुचित व न्याय है ? एक पुरुष शांति की तलाश में भटके और इधर उनकी भार्या उनके वियोग में दिन-रात तड़पती रहे, जिसके अश्रु  सरिता की भांति आवेग से प्रबल हो एवं रूकने का नाम ही नहीं लेता हो तो उस पुरुष के पुरुषार्थ को यक़ीनन बेहतर नहीं कहा जा सकता। 

एक पुरुष किसी नारी को त्यागकर शांति की तलाश करें तो वो दिव्य पुरुष, महापुरुष एवं संत की उपाधि से अलंकृत किये जाते हैं।
जबकि, एक पतिव्रता नारी अपने स्वामी को छोड़कर ईश्वर की तलाश एवं परम् शांति की तलाश में अकेले रात्रि की बेला में हमेशा के लिए अपने आवास को त्यागकर निकल पड़े तो वही समाज के भले व प्रतिष्ठित व्यक्ति उस पतिव्रता स्त्री को नीच, अधर्मी, कुलक्षिणी, चरित्रहीन और ना जाने क्या-क्या अभद्र नामकरण की उपमाओं से अलंकृत करेंगे। आख़िर क्यों नहीं ? ठहरा ये समाज आख़िर ये पुरुष-प्रधान जहां महिलाओं से ज़्यादा पुरूषों को विशेष रूप से तवज्जो दिया जाता है। 

यदि आज़ के आधुनिक व भौतिक युग में भी अपने समाज के कोई पुरुष गृह त्यागकर वैराग्य बन जाए तो लोग महर्षि, देवर्षि व मनीषियों जैसे उपमाओं से विभूषित करेंगे पर यदि अपने समाज के कोई स्त्री अपने स्वामी व गृह को त्यागकर ईश्वर व भक्ति हेतु वन की ओर प्रस्थान करे तो उस स्त्री को सुधी साधिका व तपस्विनी जैसे उपमाओं से विभूषित नहीं किया जाएगा वरन् उसे अपने समाज में नीच व चरित्रहीन दृष्टि से देखा व समझा जाएगा। इतना ही नहीं उस स्त्री को एवं उसके परिवार को को भी समाज से बहिष्कार किया जाएगा। एक पुरूष व स्त्री में यही विविधताएं हैं एवं समाज की यही निम्न विचारधाराएं हैं।

वही राजकुमार सिद्धार्थ अपने आलिशान महल एवं ख़ूबसूरत भार्या को त्यागकर जब वन के समीप जाने लगे एवं कपिलवस्तु (वट) नामक वृक्ष के जड़ों के नीचे अनेक वर्षों तक कठोर साधना, योग, ध्यान एवं हठयोग कर शांति की अनुभूतियों को प्राप्त किया व मोक्ष को प्राप्त हुए। वही राजकुमार सिद्धार्थ आगे चलकर सारे विश्व में भगवान बुद्ध कहलाए। इनके अनुयायियों सब बौद्ध दर्शन हेतु इनके शरणागत हुए, बौद्ध ज्ञान-पिपासा , शिक्षा-दीक्षा से ज्ञानामृत होकर बौद्ध भिक्षु कहलाए। 

आज़ बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार समस्त विश्व में हैं ख़ासकर चीन, जापान, श्रीलंका, नेपाल इत्यादि विदेशी देशों में मशहूर है एवं बड़े ही पैमाने पर बौद्ध भिक्षुओं सब हैं जो बौद्ध दर्शन, ज्ञान से ज्ञानामृत होकर समस्त स्थलों पर बौद्ध मंदिरों की स्थापना करते हैं एवं बड़े जोर व शोर से अपने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करते हैं। सबसे पहले सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाया और समस्त विश्व में जमकर इस धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इनके बाद बहुत सारे महान लोगों व श्रद्धालुओं ने भी बौद्ध धर्म को अपनाया। डॉ.भीमराव आंबेडकर व उनकी आदर्श अर्धांगिनी ने भी बौद्ध धर्म को अपनाये एवं बौद्ध धर्म के अनुयायी अपने जीवन के अंतिम क्षण तक बने रहे।
  बुद्धम् शरणम् गच्छामि।

ज़रा मैं बता दूं कि बौद्ध धर्म भी अपने ही सनातन धर्म की शाखाएं हैं एवं इसकी जड़ें सनातन धर्म ही तो है। आख़िर क्यों न हो? क्योंकि विश्व के सभी धर्मों में अति प्राचीनतम धर्म सनातन धर्म ही है। भले मैं सनातन धर्मी हूं अपितु विश्व के सभी धर्मों को एवं सभी धर्मानुरागियों को हृदय से समतुल्य सम्मान करता हूं। यही हमारी अपनी धर्म की वास्तविक पहचान है। 

मैंने भगवान बुद्ध के जीवनी व चरित्र पर कोई आलोचनात्मक टिप्पणियां नहीं की बल्कि उनकी आपबीती को बताया है कि आख़िर कैसे राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान् बुद्ध कहलाए। बस मैं एक युवा साहित्यकार व कलमकार होने के नाते अपनी लेखनी के माध्यम से मैंने इसका सार संक्षेप में बताने की कोशिश की। 
प्रकाश राय (सुविख्यात युवा साहित्यकार, विचारक व समाजसेवी)
सारंगपुर, मोरवा, समस्तीपुर, बिहार

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