जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।
जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।
ऐसे लोग ही बात करेंगे, विश्वकर्मा उत्थान की।।

अपने को विश्वकर्मा कहते, लाज जिन्हें है आती।
ऐसे लोग तो कुल घातक है, सचमुच है संघाती।।
क्यों पीतो हो भैया मेरे, घूंट सदा अपमान की।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।।

दम है तो, अपनी कौम का, टायटिल खूब लगाओ।
अपनी जाति की गरिमा को, निश दिन खूब बढ़ाओ।।
क्यों बेकार की आशा रखते, दूजे जाति के मान की।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।।

अपनो से जब मिलो, सदा ही एका को बतलाओ।
अपने कुल के लोगों से, आत्मीय प्यार निभाओ ।।
बदले में तब आशा करना, खुद अपने सम्मान की।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।।

ताकत मित्रों, लुका छिपी से, दिन प्रतिदिन है घटती।
मिश्र उपाध्याय पाठक लिखने से, स्वयं श्री, न बढ़ती।।
छोड़ो प्रियवर, सब ढकोसला, दूजे वर्ण, खानदान की।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।

बढ़ई और लुहारों में, हमको, जिसने  भी बांटा ।।
उनको तो बस अपने कुल में आग लगाने आता।
ऐसे विद्रोही को त्यागें, जो बनते, मुल्तान की।।

जाति छुपाए घूम रहें हो, गुप्त रखे पहचान की।

मंचों पर विश्वकर्मा बनते, करते ऊंची बातें।।
शर्मा का मतलब जब पूछो, कैसे है शरमाते।           
घर की प्रेम एकता भूल, बातें करें, जहान की।।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।

 अपना कुल पहले से ही, वैदिक, बौद्धिक प्यारा।।
 अपने कुल ने ही इजाद की, सुख सामग्री सारा।
 दुनिया वाले जान रहें हैं, अपने कुल के शान की।।

जाति छुपाए घूम रहे हो, गुप्त रखे पहचान की।

 रचनाकार : डॉक्टर डी आर विश्वकर्मा
                सुंदरपुर, वाराणसी

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