ग़ज़ल

ग़ज़ल

सनम मेरे मोहब्बत का सिला  मिलना  जरूरी था। 
हक़ीकत हो या ख़्वाबों में मग़र मिलना जरूरी था।। 

वक़्त  की  मार के  आगे  हुआ  बाज़ार  में  रुस्वा। 
परिंदा  धूप का  बनकर  मग़र  उड़ना  जरूरी था।। 

मुकर  जाते  हैं  वादों  से  यहाँ  पर  राजनीति  है। 
नहीं जी चाहता  चुन लूं मग़र  चुनना  जरूरी था।। 

खिलौने जान कर लोगों ने ढ़ाये हैं  सितम मुझ पर। 
वफ़ा की राह पर  मुझको मग़र चलना  जरूरी था।। 

क़मल की  फूल के  जैसा मिरा  तासीर है "रहमत"। 
पाक़ गंगा या कीचड़ हो  मग़र खिलना जरूरी था।। 

- शेख रहमत अली "बस्तवी"
बस्ती (उ.प्र.) 

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