अहा! लखनऊ के क्या कहने

अहा! लखनऊ के क्या कहने 
गोमती की सरल लहरों को अपने आगोश में समेटता एक शहर ...जहाँ सुकून है, शांति है, सभ्यता है, तसल्ली है , प्रेम है और रिश्तों की गुनगुनाहट है, वो है ”लखनऊ”।  जिसे भगवान राम ने लक्ष्मण को दिया था..  जो था 'लक्ष्मणपुरी',  जिसको लखनऊ बनने में ही बरसों लगे। सुना जाता है कि सन् 1775 में नवाब आसिफ़ुद्दौला ने अवध की राजधानी को फैजाबाद से उठाकर लखनऊ में तब्दील किया ....राजधानी का ओहदा मिलते लखनऊ में प्राण पड़ गए। 
लखनऊ का रूमी गेट हो या इमामबाड़ा, रेजीडेंसी हो या शहीद-स्मारक, पुराना हनुमान मंदिर हो या टीले वाली मस्जिद,  हर जगह साम्प्रदायिक एकता ...भाईचारे के साथ-साथ भावी पीढ़ी को सदैव सौहार्द का पैगाम दिया जाता रहा ...मतभेद भी रहे, पर लखनऊ अपनी सभ्यता को संभालता रहा।
 ...प्रगतिवादी युग की विषमताओं का असर भी यहाँ पड़ा, पर लखनऊ अपनी जमीनी संस्कृति के  भाव से सदैव जुड़ा रहा। 
वास्तुकला का बेहतरीन नमूना बड़ा इमामबाड़ा आज भी लोगों की पलकों पर रहता है। यह इमामबाड़ा मोहर्रम के समय रो-रो कर पढ़े जाने वाले नौहे का श्रवण करता है तो चुप ताजिये की जमीनी धाप-धाप पर भी धड़कता है।  एक वाकया बहुत प्रसिद्ध है कि एक बार नवाब वाजिद अली शाह के समय होली और मोहर्रम का जुलूस एक ही दिन पड़ गया तो हिन्दू – मुस्लिम एकता की सुन्दर मिसाल पेश करते हुए वाजिद अली साहब ने ऐलान किया कि सुबह होली खेली जाए शाम को मोहर्रम का जुलूस निकले। हिन्दू –मुस्लिम एकता के अलमदार रकाबगंज, मौलवीगंज के लाला श्रीवास्तव को आज भी आधा मुसलमान कहा जाता है। लखनऊ के नाम से एक सभ्यता स्वयमेव जुड़ जाती है। जो आर्यों के जीवन दर्शन को समझाती है तो अवध की मीठी लोक संस्कृति के रंग पर भी रंग डालती है। लखनऊ में जहाँ नवाबों के नरम-गरम किस्से हैं, तो वहीं सिपाहियों की तलवारों की  हिम्मत के भी चर्चे कम नहीं। यहाँ पायल की रुनझुन के मध्य सरगोशियाँ मिलती हैं तो सिवइयों तथा गुझियों के साथ छुपे प्रेमातुर संबंध भी मिलते हैं। लखनऊ की गोमती नदी अपने दोनों तटों पर वैशिष्ट्य की अनुपम छाप सहेजे खण्डहरों तथा शाही इमारतों की अविस्मरणीय स्मृतियों को सँजोये है। 
यहाॅं एक तरफ अवध की मिट्टी का सोंधापन है, वहीं श्रद्धेय अमृत लाल नागर  जी,  विष्णुराम जी का साहित्य प्रेम भी है। यहाँ ऊदा देवी जी जैसी विलक्षण सेनानी की साहसिक कहानियाँ हैं, तो बेगम हजरत महल की निर्भीकता भी रची बसी है। नि:संदेह लखनऊ का नाम अधरों पर आते ही एक गुनगुनाहट सी छा जाती है। चाहे यहाँ की शायरी हो, ग़ज़ल हो या गीत हों, लखनऊ सुरमई संगीत से सदैव झंकृत होता रहा है। एक तरफ सुप्रसिद्ध लोकगायिका आदरणीय कमला श्रीवास्तव जी  ने लोक-संस्कृति को बढ़ाने में अतुलनीय योगदान दिया है तो वहीं पद्म भूषण मालिनी अवस्थी जी ने पूरे विश्व में लखनऊ की लोक-संस्कृति को प्रसिद्ध कर दिया है। यदि साहित्यकारों की बात करें तो साहित्य भूषण डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित जी,  साहित्य भूषण डॉ विद्या बिंदु सिंह जी, साहित्य भूषण डॉ. देवकीनन्दन शान्त जी,  साहित्य भूषण डा. मधुकर अष्ठाना जी के साथ-साथ डॉ. शिवभजन कमलेश जी, डॉ. विश्वास लखनवी जी, डॉ अजय प्रसून जी, डॉ. एस.पी.रावत जी, डॉ. अरविंद असर जी, डॉ. भूपेंद्र सिंह जी, डॉ. कुसुमेश जी, डॉ कमल किशोर 'भावुक' जी,  डॉ. शंभूनाथ जी, डॉ. उदय राज जी, डॉ. राजीव राज जी, डॉ. इरशाद राही जी, डॉ. मंजुल मंज़र जी, डॉ. बेताब लखनवी जी,  डॉ. कुलदीप कलश जी से लेकर डॉ पूर्णिमा बर्मन जी, साहित्य भूषण डॉ. प्रमिला भारती जी,  डॉ. ऊषा सिन्हा जी, डॉ. ऊषा चौधरी जी, डॉ. उषा दीक्षित जी, डॉ. मीरा दीक्षित जी, डॉ अलका प्रमोद जी, डॉ. अमिता दुबे जी, डॉ नमिता सचान जी, डॉ. सबीहा अनवर जी, डॉ. राजवंत जी,  डॉ. सन्ध्या सिंह जी, डॉ. ज्योत्सना जी, डॉ करुणा पाण्डे जी, डॉ. ऊषा मालवीय जी, डॉ मंजू सक्सेना जी, डॉ. सुधा आदेश जी, डॉ. शोभा दीक्षित भावना जी, डॉ. नीलम रावत जी, डॉ. निर्मला सिंह जी, डॉ. स्नेहलता जी, डॉ. सीमा वर्मा जी, डॉ. रेनू द्विवेदी जी, डॉ. शोभा वाजपेई जी, डॉ. सुषमा सौम्या जी, डॉ. विनीता मिश्रा जी, डॉ. अर्चना प्रकाश जी, डॉ. रंजना गुप्ता जी, डॉ. संगीता शुक्ला जी, डॉ. निवेदिता निर्वी जी, डॉ. रत्ना बापुली जी, डॉ. रेखा बोरा जी, डॉ. सबीहा अनवर जी, हिना रिज़वी हैदर जी, फातिमा हुसैनी जी, आएशा अयूब जी, डॉ. साधना मिश्रा 'लखनवी ' जी, डॉ. साधना मिश्रा विंध्य जी, डॉ. त्रिलोचना जी,  डॉ. विजय लक्ष्मी मौर्य जी,  डॉ. सत्या जी, डॉ. सीमा मधुरिमा जी, डॉ. रोली शंकर जी जैसे असंख्य साहित्यकार अपने सार्थक प्रयासों के द्वारा लखनऊ के साहित्य का देश-विदेश में प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। यदि हम अतीत के दस्तावेजों पर नज़र डालें तो इंशा अल्लाह ख़ान इंशा (सबसे गर्म मिजाज़ शायर कहे जाते थे) 1752-1817, मीर अनीस- 1803-1874, मीर हसन- 1717-1786, मीर तकी मीर- 1723-1810, मुसहफी़ गुलाम हमदानी- 1747-1824, मोहम्मद रफ़ी सौदा- 1713-1781, अब्दुल हलीम शरर- 1860-1926, आग़ा हज्ज़ू शरफ़- 1812-1887 से लेकर भारत भूषण पन्त- 1958-2019, हयात लखनवी- 1931-2006, कृष्ण बिहारी नूर- 1926-2003, मसरूर जहाँ- 1938-2019, सफ़िया अख़्तर- 1953(मृत्यु),  नौशाद अली- 1919-2006, (जन्म लखनऊ- निवास मुम्बई) वाज़िद अली शाह अख़्तर-1823-1887, गोपाल दास नीरज- 1925-2018, स्व. के.पी.सक्सेना जी, स्व. योगेश प्रवीन जी जैसे अनगिनत लाजवाब शायर/शायरा/कवि/कवयित्रियों/साहित्यकारों ने लखनऊ को अपने अद्भुत सृजन से सदैव सुसज्जित किया है। 

अब चलें बाज़ार की ओर..तो यहिया गंज में जहाँ थोक बाजार का रोज़मर्रा का सामान अधिक मिलता है,  तो वहीं अमीनाबाद में सामान की हर क्वालिटी, हर रेंज में  उपलब्ध होती है। साथ ही 'प्रकाश की मशहूर कुल्फी़' और 'नेतराम की पूड़ी-सब्जी' तो सारी थकान उतार देती है। फिर जब नख़्खास तक पहुॅंचते हैं तो वो सबसे बड़ा बाजार लगता है। वहाॅं  चिकनकारी का जखीरा है। चिकन की छ्पाई, रंगाई, कढ़ाई, पक्के पुल के नीचे आरी-जरदोज़ी, गरारा सूट, साड़ियाँ ..दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि लखनऊ की लखनऊवा बनने की शुरुआत यहीं से होती है।  एक बात और कहेंगे कि लखनऊ की आधी आबादी तो शहर की गलियों में साॅंसें लेती है। रोटी वाली गली , बताशे वाली गली , जूते वाली गली , तार वाली गली , कंघी वाली गली सरीखी तमाम गलियाँ अपने आप में एक इतिहास हैं।
पुराने लखनऊ में जहाँ कबूतरबाजी का शौक भी पूरे शबाब पर होता है तो पतंगबाजी भी कम नहीं होती।  खाने-पीने से लेकर तवायफ़ों का कश्मीरी मुहल्ला भी बहुत मशहूर रहा है। छोटी-बड़ी काली जी का मन्दिर भी प्राचीन काल से आस्था का प्रतीक रहा है। 
राजनैतिक लोगों के सकारात्मक सहयोग से लखनऊ ने भी आधुनिक युग में अपना रूप बदला तथा गोमतीनगर में एक नए साजो-श्रंगार के साथ अपना जलवा बिखराया है।  यहाॅं सुश्री मायावती जी के द्वारा पत्थरों से कायाकल्प की गई तो एसिड अटैक पीड़ित बच्चों की नौकरी के लिये 'शीरोज़ हैंग आउट  रेस्तरा' भी बनाया गया।  वहीं 'जनेश्वर मिश्र पार्क' भी अपनी अनोखी छ्टा लिये लखनऊ को प्रसिद्धि दिला रहा है। लखनऊ का कनाट्प्लेस नाम से मशहूर हजरतगंज हो या विधानसभा, भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय हो या संगीत नाटक अकादमी, सहारागंज माॅल हो या लू-लू माॅल , आधुनिकता के साथ -साथ लखनऊ की संस्कृति तथा सभ्यता को अब तक संभाले है । अंत में मैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आदरणीय सर्वेश अस्थाना जी को तथा  डा. निवेदिता श्रीवास्तव (महिला प्रकाशक जो कि 'शारदेय प्रकाशन' के नाम से प्रकाशन के क्षेत्र में अपना सहयोग दें रही हैं) जी को भी याद कर रही हूॅं जिनके अथक प्रयासों से लखनऊ प्रसिद्धि के नये सोपानों को छू रहा है। 
परिवर्तन के इस दौर में मेरा लखनऊ आज भी आपको अपने प्रेम की नज़ाकत से मोह लेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। 

लेखिका- रश्मि लहर
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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