मंज़िल

मंज़िल
अपनी ज़िंदगी में हर कोई
एक न एक मंजिल की तलाश में
अपने घर-बार को छोड़ कर 
एक जगह से दूसरे जगह 
और फ़िर तीसरे जगह 
निरंतर सफ़र करता ही रहता है, 
किसी-किसी को तो उसका 
मंजिल मिल जाता है और कोई 
उम्र भर भटकता रहता है। 
इसका मतलब ये नहीं कि 
वो अपना परिवार, गाँव, मोहल्ला, 
शहर या फ़िर देश भूल जाता है
उसे तो अपनी हर उस चीज 
से लगाव होता है
जिसकी छाँव में वो पला बढ़ा हो। 
आज मैं भी एक बार फिर 
ज़िंदगी के इस सफ़र में कई 
स्टेशनों को क्रॉस करने के बाद 
अपनों के बीच में 
पहुँचने का सफ़र कर रहा हूँ, 
इस सफ़र में भी सकुशल 
मंजिल तक पहुँचने की उम्मीद है। 


- शेख रहमत अली "बस्तवी"
बस्ती (उ. प्र.) 

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