सुनो गांधारी!!

सुनो गांधारी!!  
सुनो गांधारी, 
बात थोड़ी जहरीली है। 
पर तुम्हें बतानी जरूरी है।। 

पतिव्रता, ममता और भोलेपन का नकाब ओढ़,
छिपा नहीं सकती तुम अपना पाप।

बच नहीं सकती, तुम द्रौपदी के अभिशाप से। 
समाज की धिक्कार से, स्त्रियों की ललकार से।। 

अरे! धृतराष्ट्र की अर्धांगिनी थी तुम, 
सुख-दुख की संगिनी थी तुम।

तुम्हें तो धृतराष्ट्र के नैन बन उसे आइना दिखाना था। 
उसे अधर्म के रास्तों से परिचित कराना था।। 

अरे मूर्ख, तुम तो खुद अंधी हो। 
उसके पाप के रास्तों पर चल पड़ी।। 

वह रास्ता जो पाप, अहंकार और स्वार्थ से भरा था।
अर्धांगिनी थी ना तुम, तुम्हें तो धृतराष्ट्र को,
शकुनि के कूटनीति से बचाना था।। 

पर तुम तो खुद संबंध जाल में फंस पड़ी। 
भूल यह नहीं कि तुम कौरवों की माता बनी,
भूल यह हुई उन्हें संस्कार सिखाने में चुक पड़ी।।

भाई- भाई का संबंध तो दूर की बात, 
पितामह राजमाता का आदर सम्मान तो दूर की बात, 
क्या होती है एक स्त्री की इज्जत !!
यह बताने में कैसे चुक पड़ी।।

माना चीरहरण के दौरान उपस्थित नहीं थी तुम।
या मुख पर पट्टी बांध उठा रही थी तुम भी इस तमाशे का लुत्फ।। 

अच्छा माफ करना गंधारी !! उपस्थित ही नहीं थी तुम।। 
पर उसके बाद क्या?

तुम्हें तो कौरवों को काट गिराना था। 
उसकी मां भी औरत है याद दिलाना था।। 
गड्ढा खोद कब्र में गिराना था। 
ओ गांधारी! माफ करना! 
मां हो ना हो तुम, पत्नी भी हो तुम। 
पर क्या स्त्री नहीं हो तुम।। 
क्या स्त्री नहीं हो तुम?

रचनाकार- स्मृति सुमन 
कफन लतीफ़, 
मुजफ्फरपुर, बिहार

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