ग़ज़ल
ग़ज़ल
कांटे बिछे हैं राहों में उनसे संभलना है।
ऐ ज़िंदगी तुझे वक़्त के साथ चलना है।।
ज़रा मुश्किल है ये सफ़र ज़िंदगी का।
हर्गिज में उन मुश्किलों से लड़ना है।।
बिखरे मोतियों की क़ीमत नहीं होती।
बनकर मोतियों की माला निखरना है।।
ये जवानी उम्र भर साथ न देने वाली।
आख़िरी पड़ाव इसे भी पिघलना है।।
हुस्न पे इतराना ठीक नहीं "रहमत"।
एक दिन तिरा सूरज भी ढलना है।।
- शेख रहमत अली बस्तवी
बस्ती (उ, प्र,)
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