शक्ति और संकल्प की जीत का पर्व विजया दशमी : ममता श्रवण अग्रवाल

शक्ति और संकल्प की जीत का  पर्व विजया दशमी : ममता श्रवण अग्रवाल 

अभी अभी हमने दशहरा पर्व मनाया और हम में से बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न अवश्य रहता है कि नौ दिवस तक हमनें माता की आराधना की और दशम दिन हम माँ की मूर्तियों का विसर्जन कर दशहरा क्यों मनाते हैं?
तो चलिए हम इस विषय में बात करते हैं। सबसे पहले मैं बताना चाहूँगी कि मैं ईश्वर की निराकार सत्ता को मानती हूँ और यह सत्ता कैसे साकार रूप लेती है, यह मैं बताना चाहूँगी कि वह  यह है कि जैसे इलेक्ट्रिक की पॉवर जिस आकार में प्रवेश कर जाती है, वह उसी का आकर ले लेती है, जैसे यदि वह पॉवर बल्ब में है तो हम बोलते हैं कि बल्ब जल गया और यदि यह पॉवर ट्यूबलाइट में चली तो हम बोलते हैं कि ट्यूबलाइट जल गई। इस प्रकार पॉवर का कोई लिंग नहीं है ।यह जिस लिंग में  प्रवेश कर जाती है, वहाँ जाकर यह वैसी बन जाती है।ठीक इसी प्रकार की शक्ति समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है और जब यह शक्ति  किसी पुरुष स्वरूप में प्रवेश कर जाती है तो हम उसे देवता कहते हैं और जब यह शक्ति किसी नारी स्वरूप में आ जाती है तब हम उसे देवी कहते हैं ।
 अब बात आती है कि क्या ये दोनों शक्तियाँ अलग अलग हैं या फिर एक ही सत्ता के स्वरूप। ये मूलतः यह एक ही हैं। जैसे किसी एक विषय का शिक्षक चाहे वह महिला हो या पुरुष, उस विषय का एक ही सिद्धांत बताएगा ठीक वैसे ही ये शक्तियाँ अलग अलग दिखते हुए भी कार्य करते समय एक ही स्वरूप की हो जाती हैं। देखिए जैसे हम जब कोई बड़ा कार्य सम्पन्न करते हैं तब कोई कितना भी योग्य क्यों न हो, वह अकेले कोई कार्य नहीं करता, यह बात पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र से लेकर अध्यात्म तक के विषय में कही जाती है। इस प्रकार किसी भी कार्य में उस कार्य से सम्बंधित सारे गुणीजन अपना अपना आंशिक या अधिकतम सहयोग देते हैं। इसी प्रकार ये सार्वभौम शक्तियाँ आपस में एकत्रित होकर ही कार्य करती हैं।
  अब हम आते हैं अपने मूल विषय पर कि विजयदशमी पर्व को विजया दशमी क्यों कहते हैं?
विजय और विजया में भी लिंग भेद है, विजया यानी शक्ति की जय।
अब जब राम ने लंका पर विजय पायी तब इस पर्व का नाम विजया दशमी कैसे पड़ा?
आइये समझें - 
 राम रावण के युद्ध में रावण अहंकारी था पर शक्तियों का पुजारी भी था। इसी कारण से वह अजेय भी हो रहा था। तब एक दिवस जब वह परास्त नहीं हो रहा था, तब प्रभु श्रीराम ने चिंतन किया कि इसके पराक्रम का ऐसा क्या कारण हैं और तब उन्हें ज्ञात हुआ कि रावण प्रतिदिन शक्ति की आराधना करता है। तब प्रभु ने भी महाशक्ति आराधना का संकल्प लिया और उन्होंने नवदिवसीय पूजन का संकल्प लिया जिसमें 108 नील कमल माता को अर्पित करने का भाव बनाया। यहाँ मैं आपको बता दूं कि 108 का  इतना महत्व क्यों है? यह भी नौ से विभाजित  संख्या है जो कभी घटती बढ़ती नहीं है । इसकी विस्तृत व्याख्या अपने बाद के आलेख में बतलाऊंगी।
 इस प्रकार उनका यह अनुष्ठान पूरा होने ही वाला था कि अंतिम दिवस उन्होंने देखा कि एक नील कमल पूजा की थाली में नहीं है। अब प्रभु ने तत्क्षण निर्णय लिया कि माँ उन्हें राजीवनयन कहती हैं तो क्यों न अपना एक नेत्र ही माँ भगवती को अर्पण कर दें और जैसे ही वे अपने धनुष और तीर से अपना नेत्र विच्छेदन करने को उद्धृत हुये कि माँ प्रकट हो गई और उन्हें विजय श्री का आशीर्वाद दिया।
 इस प्रकार यहाँ दो तरह की बात सामने आती हैं कि 
 प्रथमत: जब हम कोई बड़ा कार्य हाथ में लेते हैं तो हमारी परीक्षा होती है जिससे हमारे संकल्पों में और दृढ़ता आती है और
 द्वितीय जब हम कोई भी नेक कार्य का संकल्प लेते हैं तो सम्पूर्ण सृष्टि की शक्तियां हमें सहयोग करती हैं।
 और अंततः इस प्रकार हमारा विजया दशमी का पर्व शक्ति और संकल्प का महापर्व है, जो पुरुष स्वरूप राम की दृढ़ता और नारी स्वरूप शक्ति के उचित समायोजन से प्राप्त सफलता का प्रतीक है।

धन्यवाद!

मेरे ग्रंथ श्री साई वचनामृत से.                 
-ममता श्रवण अग्रवाल
साहित्यकार, 
सतना, मध्य प्रदेश 

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