अनूप कुमार श्रीवास्तव द्वारा लिखी गजल- माँ

अनूप कुमार श्रीवास्तव द्वारा लिखी गजल- माँ 

 (माँ)
बचपन जिसका मां की बाहों में बीता,
मां का आंचल धरती अम्बर लगता है।1

मां की  बातें  गहरीं  बातें  यादों में ,
अमृत मंथन मौन समंदर लगता है।2

ये जग भी घर लगता सूना पन डसता
मां के   बीना खाली मंदर लगता है ।3

अब का  जीना दुष्कर जैसा  लगता है,
बदलीं सबकीं आदत  से डर लगता है।4

ममता की क्या कीमत ये जग  दे पाया ,
मां का  तारा  आश्रम  देकर   लगता है।5

 सारे  रिश्तों   में मां   धूरीं   होती   थीं ,
फ्लैटों  में अब बिस्तर अंदर लगता है।6

पीले  लेने   दो जी  लेने  दो भी कुछ,
सीने   में है  दहकें  अक्सर  लगता है।7

 मां को शिकवा कब था लेकर कीसी को , 
 कहती   बेटा    मेरा   जेवर  लगता  है।8

मेरी    मां थी   जैसें  डाली   फूलों  की , 
आगन का वो दरख्त चश्मेंतर लगता है।9

 मां के  होते  मीले   सारे  रिश्तें जो ,
 दादी नानी  में अब अंतर लगता है ।10

-अनूप कुमार श्रीवास्तव 
कानपुर, उत्तर प्रदेश 

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